शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

'‘दिया तले अंधेरा’’

दिये को प्रज्वलित करने का विश्व रिकॉर्ड। 

‘‘दिया तले अंधेरा’’ का सबसे नवीनतम उदाहरण अयोध्या में ‘‘दीप प्रज्वलित’’ का है। सबसे बड़ा हिन्दू त्यौहार ‘‘दीपावली’’ के शुभ अवसर पर लगभग 500 साल बाद ‘‘अयोध्या’’ के नवनिर्मित भव्य श्रीराम मंदिर परिसर में सरयू नदी के 55 घाटों में 25 लाख 12585 ‘‘दिये’’ (दीपक) प्रज्वलित कर नया ग्रीनिज विश्व रिकॉर्ड बनाया गया। साथ ही एक साथ 1121 अर्चकों के सरयू आरती का भी नया रिकॉर्ड बना है। इसके लिए हिन्दू समाज मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बधाई प्रेषित कर रहा है। वैसे भी विश्व रिकॉर्ड बनाए जाने पर बधाई तो प्रेषित की ही जानी चाहिए। एक रिपोर्ट के अनुसार यह रिकॉर्ड बनाए जाने के लिए लगभग 91 हजार लीटर सरसों का तेल खर्च हुआ है। कुल खर्च का रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। उत्तर प्रदेश की योगी सरकार की ओर से वर्ष 2017 से प्रारंभ किए गए दीपोत्सव में लगातार वर्ष प्रतिवर्ष नये-नये रिकॉर्ड बनते रहे हैं। वर्ष 2017 में एक साथ 1.71 लाख दीपों का प्रज्वलन हुआ था। वर्ष 2018 में 3.01 लाख दीये, 2019 में 4.04 लाख दीये, 2020 के चौथे दीपोत्सव में 6.06 लाख दीप प्रज्वलित किए गए थे। इसके उपरांत 2021 में 9.41 लाख दीये, 2022 में कुल 15.76 लाख दीये और 2023 के सातवें दीपोत्सव में 22.23 लाख दीयों के प्रज्वलन का रिकॉर्ड बना था।

कितना आवश्यक?

वर्तमान के रिकॉर्ड के साथ एक वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसमें स्वास्थ्य कर्मचारी ‘दिये’ में बचे तेल को नदी में छोड़ रहे हैं। इसका महत्वपूर्ण कारण शायद यह रहा है कि पिछले वर्ष भी जब ऐसा ही विश्व रिकार्ड बनाया गया था, तब वहां के गरीब निवासियों केे ‘‘दिये के बचे तेल से’’ तेल इकट्ठे करने का वीडियो वायरल होने से सरकार को कहीं न कहीं शर्मिदगी उठानी पड़ी थी। बावजूद इसके इस वर्ष भी तेल इकट्ठा करने का वीडियो वायरल हुआ है। एक प्रश्न जरूर यहां उठता है कि क्या हमारा देश या कोई राज्य इस तरह के विश्व कीर्तिमान को बनाने के लिए हुए सरकारी या गैर सरकारी खर्च को वहन करने की क्षमता अथवा प्राथमिकता रखता वर्तमान में है? वह देश जिसके लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह सपना हो कि हवाई चप्पल पहनने वाला व्यक्ति हवाई जहाज का सफर कर सके। वहां ऐसे व्यक्ति की जिंदगी की गाड़ी चलने में ही ‘‘तेल’’ निकला जा रहा है, ऐसी स्थिति में दिये की जगमगाती रोशनी से बने दिव्य नजारे के विश्व रिकॉर्ड के नीचे निर्धन जनता का दिए के बचे तेल को इकट्ठा करना रोशनी के ठीक नीचे अंधेरा नहीं तो क्या है? क्या इस स्थिति से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न हमारे दिलों दिमाग में नहीं उठते हैं? वे क्या हो सकते हैं व समाधान क्या होने चाहिए? इसकी कुछ चर्चा आगे करते हैं।

धार्मिक आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन में आर्थिक व्यय पर अंकुश आवश्यक।

निश्चित रूप से हिन्दू समाज में धार्मिक आस्थाओं के उत्सव कुछ-कुछ अंतरालों से लगभग साल भर होते रहते हैं। ये हमारी धार्मिक आस्था के ‘‘प्रतीक’’ और ‘‘प्रदर्शन’’ भी है। इनमें भावनाओं का ‘‘अभिभूत दर्शन’’ कितना है, यह अलहदा बात है। प्रश्न यह है कि क्या इन आस्थाओं के सार्वजनिक प्रदर्शन की ‘‘वैभवता’’, ‘‘साधारणपन’’व ‘‘प्रतीकात्मकता’’ के बीच कोई ‘‘संतुलन’’ स्थापित किया जा सकता है, अथवा नहीं? इस ‘‘संतुलन’’ की आवश्यकता का एकमात्र कारण ‘‘आर्थिक धन के अपव्यय’’ को आर्थिक स्थिति के मद्देनजर रोकना है। एक वर्ग या कुछ लोग जरूर यह कह सकते है कि ‘‘आर्थिक अपव्यय’’ की ‘‘फिजूल बात’’ सिर्फ धार्मिक आस्थाओं के कार्यक्रम के संबंध में ही क्यों की जा रही है? क्या जनजीवन के अन्य क्षेत्रों में आर्थिक अपव्यय नहीं होता है? तर्क अपने आप में सही है, लेकिन पूर्ण नहीं है। ‘‘आर्थिक अपव्यय’’ का आधार सिर्फ धार्मिक प्रदर्शनों के लिए नहीं, बल्कि जीवन के समस्त क्षेत्रों के सार्वजनिक प्रदर्शन के साथ व्यक्तिगत कार्यक्रमों पर भी लागू होना चाहिए। और यदि वास्तव में यह ‘‘संतुलन की लक्ष्मण रेखा खींचकर’’ धरातल पर उसे उतार दिया जाये, तो यह आपका देश के प्रति ही नहीं, बल्कि स्वयं के प्रति भी एक बड़ा उपकार होगा।

अपव्ययो को कम कर गरीबी के स्तर को सुधारने की ज्यादा जरूरत है।

जब हम तेल दिए से नागरिकों द्वारा के बचे हुए तेल को एक घरेलू उपयोग के लिए इकट्ठा करते हुए देखते है, तब क्या हमारा मन तत्समय एक क्षण के लिए धार्मिक आस्था से हटकर नागरिक जीवन की उसे भयावत स्थिति पर द्रवित नहीं हो जाता है? यदि नहीं! तो हम मानवीय धर्म नहीं निभा रहे हैं और यदि हां तो हमे धार्मिक आस्था के खुले वैभव के प्रदर्शन पर अंकुश लगाकर एक प्रतीकात्मक लेकिन दृढ़ धार्मिक भावना का प्रदर्शन करना होगा। निश्चित रूप से हमारा यह कदम अप्रत्यक्षतः उस गरीब नागरिक के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने की पूर्ति में अपनी जेब से खुद कुछ दिये बिना भी सहायक होगा। ‘‘रोटी कपड़ा और मकान’’ इस देश के नागरिकों की प्रथम मूलभूत जरूरतें हैं। धार्मिक आस्था के उक्त भावपूर्ण प्रदर्शन को उक्त जरूरतांे के बीच किस प्रकार से स्थान दिया जा सकता है, इस पर  गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। 

एकमात्र फायदा। 

वैसे एक तर्क जरूर दीपक जलाने के पक्ष में है। वह इससे आसपास के वातावरण में मौजूद बैक्टीरिया वायरस नष्ट होकर वातावरण शुद्ध होता है। परन्तु उक्त दीपोत्सव का यदि यही कारण है, तब दिल्ली में इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है, जिसका एयर क्वालिटी 370 होकर जो विश्व का ‘‘सबसे बड़ा प्रदुषित शहर’’ लाहौर के एयर क्वालिटी इंडेक्स 394 से दूसरे नंबर पर है।

अपव्यय का प्रदर्शन और अंकुश पर एक कानून की आवश्यकता है। 

जरा अंबानी घराने की शादी को याद कीजिए! वैभवता का फूहड़ प्रदर्शन जिसे व्याभिचारी प्रदर्शन ही कहा जायेगा, प्रदर्शित हुआ। क्या इस आधार पर इसे उचित ठहराया जा सकता है कि यह उनका एक संवैधानिक नागरिक अधिकार है, जो अपनी आय की जेब से पैसे खर्च कर रहे है? मेरी अपनी मर्जी। बिल्कुल नहीं। यह तो गलत ही है। हमारे देश में शादी ब्याह व सार्वजनिक कार्यक्रमों के लिए आमंत्रितों की संख्या व भोज के लिए खाद्य आइटम्स की एक अधिकतम संख्या की एक निश्चित सीमा तय करने के लिए संसद में अभी तक 10 बार निजी विधेयक प्रस्तुत किए जा चुके हैं परंतु, वे आज तक कानून नहीं बन पाये। वैसे भी कानून का पालन होता कहां है इस देश में? या कितना होता है? ‘‘थूकना अपराध है’’। इसके उल्लंघन पर क्या कभी आपने कोई फाईन होते आज तक देखा है?

पूर्णतः सरकारी स्तर पर धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन! कितना औचित्यपूर्ण?

एक प्रश्न यहां पर यह भी उठता है कि उक्त पूरा कार्यक्रम सरकारी स्तर पर उत्तर प्रदेश सरकार ने जो संपन्न किया, वह कितना उचित है? सरकार का दायित्व किसी धार्मिक कार्यक्रम के क्रियान्वयन पर आवश्यक प्रशासनिक प्रबंध करना होता है न कि उस कार्यक्रम को बनाने से लेकर धरातल पर उतारने तक आवश्यक धन मुहैया करने का दायित्व होता है। इस पर प्रश्न उठाना राजनीति नहीं है। न ही इस पर किसी को राजनीति करना चाहिए। यदि कोई इस पर राजनीति करता है, तो निश्चित रूप से उसकी धार्मिक आस्था पर भी प्रश्न उठेगा ही। इसलिए इस मुद्दे को सिर्फ आर्थिक दृष्टिकोण से ही देखना चाहिए। 

अंत में ‘‘20 साल बाद फिल्म’’ का प्रसिद्ध गाने की प्रथम लाइन याद आ रही हैः- कहीं दीप जले कहीं...........?

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