गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

‘‘एक देश एक चुनाव’’! ‘‘बुनियादी ढांचे में परिवर्तन’’ या ‘‘पुर्नस्थापना’’?

129 वां संविधान संशोधन विधेयक ‘‘संघीय ढांचे पर अतिक्रमण’’ कैसे?

'संविधान संशोधन विधेयक आवश्यकता!

संविधान लागू होने के 75 वें वर्ष पर संसद में दो दिन पूर्व से हो रही संविधान पर चर्चा के दौरान पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में एक वर्ष पूर्व (सितम्बर 2023 में) गठित कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशों को रूबरू कैबिनेट ने स्वीकार कर 129 वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया है, जिसे विस्तृत विचार हेतु ’‘जेपीसी’’ को भेजा जायेगा। यद्यपि इस संबंध में वर्ष 1983 से ही भिन्न-भिन्न समयों में चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग एवं संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं।

'एक देश-एक चुनाव’ की जरूरत क्यों?’

बेशक यह मुद्दा आज बहस के केंद्र में है। महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्ष 1952 से 67 तक लोकसभा व विधानसभाओं के एक साथ हुए आम चुनावों (एक अपवाद को छोड़कर जब वर्ष 1960 में केरल विधानसभा के मध्यावधि चुनाव कराने से यह क्रम पहली बार टूटा) के बाद समय-समय पर विभिन्न राज्यों की विधानसभाएँ  भिन्न-भिन्न कारणों से समय पूर्व भंग कर दी गईं। बड़े पैमाने पर वर्ष 1969 में कांग्रेस पार्टी में विभाजन होने के कारण वर्ष 1971 में देश में पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराये गए थे। महत्वपूर्ण ध्यान देने योग्य बात यहां यह है कि यह स्थिति कोई संवैधानिक  संशोधन के कारण नहीं हुई है? तथापि एक साथ चुनाव कराने में वापस आने के लिए जरूर प्रस्तावित संविधान संशोधन करना आवश्यक हो गया है। प्रश्न यह है कि पूर्व स्थिति की ’‘पुर्नस्थापना’’ के लिए किए जाने वाले प्रस्तावित संविधान संशोधन से क्या उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘‘केशवानंद भारती’’ (वर्ष 1973) में प्रतिपादित सिद्धांत ‘‘संविधान के मूलभूत (बुनियादी) ढांचा’’ जिसे आगे भी कई अवसरों पर उच्चतम न्यायालय ने सही ठहराया है, पर आंच आयेगी? क्या यह संघीय ढांचे पर अतिक्रमण है’’? ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब चार बार एक साथ चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं, तो अब पुनः उक्त स्थिति को पुनर्स्थापित करने में समस्या क्या व क्यों है? इस पर समस्त पहलुओं के साथ गहनता से विचार करना आवश्यक है।

'पुरानी व्यवस्था की पुनर्स्थापना ! नई नीति नहीं!’

संविधान निर्माताओं ने जब निश्चित अवधि 5 साल के अंतराल में एक साथ लोकसभा व विधानसभा के चुनाव कराने की बात कही थी, तब उन्होंने यह कल्पना नहीं की थी कि देश में दल बदल के कारण ‘‘आयाराम-गयाराम’’ की राजनीति के गिरते स्तर, लालच, धन, बल के चलते शनै शनै एक स्थिति ऐसी बन जायेगी, जब ‘‘संवैधानिक प्रावधिक अवधि’’ का पालन करने के कारण प्रायः अधिकतर राज्यों की विधानसभाओं व केंद्र के लोकसभा चुनाव अलग-अलग होने लगेगें। अतः जब वर्ष 1967 तक चुनाव एक साथ होते रहे हैं, जब वे संघीय ढ़ाचे पर अतिक्रमण नहीं थे, तब आज कैसे? जबकि किसी भी सरकार ने संविधान संशोधन कर चुनावी अवधि की व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया। याद कीजिए! संविधान निर्माताओं ने प्रारंभ में ‘‘एससी एसटी’’ ‘‘आरक्षण’’ के लिए मात्र 10 वर्ष का प्रावधान किया था, और उक्त उद्देश्य की प्राप्ति न होने के कारण इसे हर आगे 10 साल के लिए बढ़ाने का प्रावधान किया गया, जिसकी दूरदर्शी कल्पना तो उन्होंने तत्समय ही कर ली थी। परन्तु संविधान निर्माताओं ने शायद राजनेताओं के गिरते नैतिकता व गलत आचरण की कल्पना नहीं की थी, जिस कारण ही एक साथ चुनाव कराने का चक्र पांच साल की अवधि का क्रम टूटा है। दुर्भाग्यवश यह व्यवस्था का अभिन्न अंग बन गई है। तब फिर उसे सुधारने के लिए वही पुरानी चार चुनावों तक (52 से 67) चली व्यवस्था को पुर्नस्थापित करने के लिए यदि संविधान में आवश्यक संशोधन किये जाते हैं, तो वह संविधान के संघीय ढांचे के साथ छेड़-छाड़ या चोट कैसे! यह समझ से परे है। आख़िर "शगुन के बाजे समय पर ही सुहाते हैं"।

'विपक्ष के विरोध के आधार।

15 विपक्षी पार्टियां का विरोध का आधार है। ‘‘यह असंवैधानिक है’’। ‘‘संविधान की आत्मा पर चोट है’’। ‘‘यह संसदीय शासन प्रणाली में निहित विधायिका के प्रति कार्यपालिका की जवाब देही के मूल सिंद्धात को बिगाड़ देगा। साथ ही यह संविधान की बुनियादी संरचना का उल्लंघन करता प्रतीत होता है’’। ‘‘विधानसभा की स्वायत्तता पर खतरा है’’। ‘‘क्षेत्रीय पार्टियां खत्म हो जायेगी’’। ‘‘शासन विपक्ष युक्त देश चाहता है’’। ‘‘आरएसएस का एजेड़ा लागू करने की कोशिश’’ व ‘‘ध्यान भटकाना’’, जैसे कथनों द्वारा तीव्र विरोध प्रकट किया है। तात्पर्य यह कि "वचने किम् दरिद्रता"। इन सबका सीधा जवाब है कि प्रारंभिक 20 वर्षों तक जब एक साथ चुनाव होते रहे थे, तब क्या देश में लोकतंत्र व संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन हो रहा था? संघीय ढांचे को चोट अनवरत बिना किसी विरोध के पहुंच रही थी? तब देश के किसी भी शख्स ने एक साथ हो रहे चुनाव के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा। तो अब विरोध क्यों? इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है। यह तो वही बात हुई कि "हंसिया रे तू टेढ़ा क्यों अपने मतलब से"।

आधारहीन विरोध!

       एक बात और जो इस कदम के विरूद्ध में कही जा रही है, विधानसभा-लोकसभा में एक साथ वोट देने पर देश में साक्षरता का स्तर कम होने के कारण लोग विवेक से सही निर्णय नहीं ले पाते हैं। इसका कुछ फायदा केन्द्र में बैठी सरकार की पार्टी को होता है। विशेषकर क्षेत्रीय दलों को नुकसान होता है क्योंकि राज्यों के चुनावी मुद्दे गौण हो जाते है। इस संबंध में अभी हाल के हुए ओडिशा विधानसभा चुनाव का उल्लेख करने वाले ओडिशा के पिछले परिणाम को भूल जाते हैं। जब एक साथ चुनाव कराने में उम्मीद के विपरीत परिणाम आये थे। अभी हाल में ही हुए महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव के साथ नादेड़ लोकसभा का उपचुनाव कराया गया था, जहां भी लोकसभा व विधानसभा में एक से परिणाम न होकर विपरीत परिणाम मिले थे। वस्तुतः यह जनता के विवेक पर ही प्रश्न-चिन्ह लगाने समान है? इसलिये "वज़ा कहे जिसे आलम उसे वज़ा कहो"।

‘चुनाव’’ ही लोकतंत्र का सबसे बड़ा ‘‘उत्सव’’ है।’

एक साथ चुनाव के पक्ष में एक कथन यह भी है कि हर वर्ष किन्हीं राज्यों में चुनाव होते ही रहते हैं जिस कारण आचार संहिता के लागू रहने से सरकार नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती है। वर्ष 1951 से 60 -25 चुनाव, 61 से 70-46, 71 से 80-71, 81 से 90 -59, 91 से 2000 -59, 2001 से 2010-62, 2011 से 2020 -63, 2021 से 2024 में 30 चुनाव सम्पन्न हुए है। तथापि उक्त आकड़े सरकार के हर हमेशा चुनाव होने के दावे को पूरी तरह से सही नहीं ठहराते हैं। विधेयक के पक्ष में यह कथन भी पूरी तरह से सही नहीं है कि इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं, बल्कि देश के खजाने पर भी भारी बोझ पड़ता है। हाल ही में हुए 17वीं लोकसभा के चुनाव में एक अनुमान के अनुसार, 60 हजार करोड़ रुपए से अधिक का खर्च आया और लगभग तीन महीने तक देश चुनावी मोड में रहा। वैसे पूर्व चुनाव आयुक्त ओ.पी. रावत के अनुसार भारत का चुनाव विश्व भर में सबसे सस्ता चुनाव है। यदि पैसों का ’‘अपव्यय’’ एक साथ चुनाव कराने का मुख्य आधार है, तब फिर राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए गए खर्चों की कानूनी सीमा क्यों नहीं बांधी जाती है? जो उम्मीदवारों द्वारा किए गए खर्चों से कई गुना ज्यादा होती है व उम्मीदवार के चुनाव खर्च में नहीं जुड़ती है। आचार संहिता लागू होने पर सिर्फ नई नीति की घोषणा नहीं की जा सकती है। वह भी जरूर, यदि जनहित में अति आवश्यक हो तो चुनाव आयोग की अनुमति से की जा सकती है। आचार संहिता में भी आवश्यक संशोधन करके सरकार के दैनिक कार्यों में लगे अनावश्यक अंकुश को कम किया जा सकता है। इसलिए इस आधार पर एक साथ चुनाव की वकालत तथ्यात्मक नहीं है। इसलिये विपक्ष भी यह जानता है कि "यह लड्डू हैं रेत के"।तथापि ‘‘चुनाव’’ का ‘ड़र’ ही जनप्रतिनिधियों को जनता-जर्नादन के साथ जीवंत सर्म्पक व उनके निकट लाता है।

'भाजपा की वैचारिक पहचान।’

        ‘‘जनसंघ’’ से लेकर भाजपा और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक सपना रहा है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, ‘‘विविधता में अनेकता लिये हुए’’ भारत देश की अखंडता को "क्षिति जल पावक गगन समीरा" के समान एक सूत्र में बांधने के लिए ‘‘एक देश-एक विधान’’ ‘‘एक निशान’’, ‘‘एक मोबिलिटी कार्ड, (एनसीएमसी)’’ एक पहचान (आधार कार्ड) ‘‘एक राशन कार्ड’’, ‘‘एक कर’’, ‘‘एक शिक्षा नीति’’, एवं एक देश-एक ग्रिड’’का होना आवश्यक है। इसी कड़ी में एक देश-एक चुनाव की नीति पर मोदी सरकार लगातार काम कर रही है। इसके पटल (काउंटर) में विपक्षी नेताओं ने वन नेशन-वन इनकम, वन एजुकेशन, वन इलाज का शिगूफा छोड़ा है।

'सरकार परसेप्शन बनाने में असफल।

यद्यपि आज की राजनीति में ‘‘एक्शन की बजाय पररेप्शन’’ का महत्व ज्यादा है, जिसे बनाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी माहिर है। उनके मुकाबले सिर्फ केजरीवाल ही ठहर पाते हैं। इसके लिए एक्शन करते हुए दिखना जरूर पड़ता है। परंतु इस मुद्दे को लेकर मोदी शायद चूक गये लगते है। क्योंकि ‘‘एक देश-एक चुनाव’’ को लेकर प्रथम अवसर मिलने पर ही एक्शन कर परसेप्शन क्यों नहीं बनाया गया? पिछले एक साल की अवधि में हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों को ही ले लीजिये! 7 फेसों में लोकसभा चुनाव की चुनावी प्रक्रिया की अवधि कम की जा सकती थी। उड़ीसा विधानसभा के साथ ही महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, झारखंड व कुछ और राज्यों के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ कराया जा सकते थे, यदि चुनाव आयोग इनकी अवधि को 6 महीने आगे पीछे घटा-बढ़ा कर लेता, जो उसके अधिकार क्षेत्र में है। वर्ष 2022 में गुजरात के साथ हिमाचल के भी चुनाव कराये जा सकते थे, जो पहले होते भी थे। तब शायद जनता के मन यह परसेप्शन जरूर जाता कि सरकार वास्तव में इस विषय पर गंभीर है और वह बिना संवैधानिक संशोधन किये इस दिशा में जो संभव कदम उठा सकती है, उठा रही है। एक तथ्य यह भी है कि इसके लिए दोनों सदनों में आवश्यक संख्या बल से एनडीए फिलहाल कोसों दूर है जो बिल को स्वीकार करने के लिए व्हिप जारी करने के बावजूद हुए मतदान के परिणाम से सिद्ध भी होता है। यानी सरकार भी जानती है कि "हंसी हंसी में हसनगढ़ बसने वाला नहीं" इसलिये बिल प्रस्तुतीकरण पर चर्चा पूरी होने के पूर्व ही गृहमंत्री के सुझाव पर संसदीय मंत्री का बिल को जेपीसी को भेजने का प्रस्ताव कहीं न कहीं सरकार की मंशा पर शंका पैदा करता है। पंचायती राज लागू होने के बावजूद पंचायतें, नगरपालिकाओं को इस संशोधन की परिधि में न लाने से इस मुद्दे की हवा थोड़ी जरूर निकली है। कोविंद कमेटी ने अपनी हजारों पेज की रिपोर्ट में बीच में विधानसभा भंग होने पर उसका चुनाव 5 साल के लिए न किये जाकर शेष अवधि के प्रावधान के लिए किया है। शायद यह प्रस्तावित संशोधन  संविधान की मूल अवधारणा को (अवधि कम करने के कारण) चोट पहुंचा सकता है? खासकर उस स्थिति को देखते हुए कि वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी ने संविधान संशोधन कर लोकसभा का वर्ष 1971 की अवधि कार्यकाल 5 साल से बढ़ाकर 6 साल कर दी थी, जिसे न्यायालय में अवैध घोषित नहीं किया गया था।  इस संबंध में उच्चतम न्यायालय की राय ली जा सकती है।

'उपसंहार।

वास्तव में यदि राजनीतिक दल व जनता यह चाहती है कि, संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार चुनाव 5 साल में एक बार एक साथ हो, और यह क्रम आगे भी निरंतर चलता रहे। तब फिर दल बदल को पूर्णतः प्रतिबंधित कर और बीच में सरकार किसी भी मुद्दे के गिरने पर शेष अवधि के लिए ‘‘अल्पमत सरकार’’ को कार्य करते हुये देना होगा। अथवा पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत द्वारा वर्ष 2015 में सरकार को एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव के संबंध में दिया गया यह सुझाव महत्वपूर्ण हो सकता है कि अविश्वास प्रस्ताव की जगह ‘‘रचनात्मक विश्वास प्रस्ताव’’ का प्रावधान करना होगा। वैसे यदि देश में पूर्ण रूप से न सही तो 90 प्रतिशत सभी राज्यों के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ हो, तब भी वह देश की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए एक नेशन एक इलेक्शन ही कहलायेगा। ठीक उसी प्रकार जैसे एक देश एक टैक्स दर की नीति के तहत जीएसटी वर्तमान में विभिन्न टैक्स दरों के साथ लागू है।

अंत में एक साथ चुनाव कराने वाले के पक्षधर विश्व के कई देश अमेरिका, कनाडा, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड इत्यादि में एक साथ चुनाव कराने का उदाहरण दे रहे है, तब फिर इन्हीं देशों में बैलेट पेपर से चुनाव कराये जाने का क्यों नहीं अनुसरण कर रहे है? परंतु इसका जवाब नहीं मिल पायेगा। देश की राजनीति की नियति ऐसी हो गई है, जहां सुविधा के अनुसार मुद्दों को चुनने की ’राजनीति’ प्रत्येक पक्ष कर रहा है, लेकिन कोई भी इस नीति का पालन करता नहीं दीखता कि "राज सफल तब जानिये प्रजा सुखी जब होय"।

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

अजब देश की गजब कहानी! ‘‘राज्यसभा कैश कांड’’।

‘‘हंगामा है क्यूं बरपा? हंगामा?

भूमिका।

अभी तक तो मेरा मध्य प्रदेश समय के अंतरालों पर अजीबो गरीब हरकतें घटित होने से ‘‘अजब गजब प्रदेश’’ कहलाता रहा है। परंतु विगत दिवस राज्यसभा जो संसद का उच्च (अपर) स्थायी सदन होता है, में जिस तरह से ‘‘कैश कांड’’ का वर्णन माननीय सभापति महोदय ने दिया जिस पर आयी निम्न स्तरीय राजनीतिक प्रतिक्रियाओं ने मेरे प्रदेश की उक्त ‘‘संज्ञा मुकुट’’ को संसद ने मेरे देश के शीर्ष पर पहना दिया, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। आइये राज्यसभा के इस कैश कांड के ‘‘कहे-अनकहे’’ पहलुओं को ‘‘उथली बहस’’ व लगाए आरोपों के विपरीत, समझने का  प्रयास करते हैं।

कैश कांड आखिर है क्या?

संसद के शीतकालीन सत्र के नौंवे दिन जब कांग्रेस के सांसद लोकसभा के बाहर पट्टी लगाकर नारेबाजी प्रदर्शन कर रहे थे, देश के वरिष्ठम अधिवक्ता, कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी, उच्चतम न्यायालय में बहस कर रहे थे, तब राज्य सभा के अंदर सभापति जगदीप धनकड़ सदन को बतला रहे थे कि कल हाउस स्थगित होने के बाद नियमित एंटी सबोटाज जांच के दौरान सीट क्रमांक 222 जो तेलंगाना से 2024-26 के लिए सदस्य बने अभिषेक मनु सिंघवी की है, की सीट के नीचे 500 की नोटों की गड्डी मिली है। सभापति ने आगे कहा, ‘‘परंपरा के अनुसार जांच का आदेश दिया गया है. यह स्पष्ट नहीं है कि करेंसी नोट ‘‘असली थे या नकली’’ (क्योंकि ‘‘उजला उजला सभी दूध नहीं होता’’।) गड्डी में 500 रुपये के नोट हैं. यह मेरा कर्तव्य था और मैं सदन को सूचित करने के लिए बाध्य हूं। उन्होंने आगे कहा, क्या लोग इस तरह नोटों की गड्डी भूल सकते हैं? अभी तक कोई दावेदार न आने से मैं यह जानकारी सदन को दे रहा हूं। बात जितनी साधारण सी दिखती है, उतनी है नहीं, यदि आप माननीय सभापति के शब्दों व पूरे कथन और उसके बाद आई राजनीतिज्ञों की प्रतिक्रियायों को जोड़कर देखें, तब आप समझ पाएंगे आखिर माजरा है क्या? जांच किस बात की, व उसका दायरा क्या है, अध्यक्ष महोदय ने स्पष्ट नहीं किया।

सदन को न चलने देना का सभापति का दांव तो नहीं?          

सभापति के उक्त खुलासे के तुरंत बाद विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि आपने जांच पूरी हुए बिना सांसद का नाम कैसे ले लिया? इस पर सभापति ने कहा मैंने उनका नाम नहीं लिया है, सिर्फ सीट इनकी है, यह बतलाया है। क्या सभापति सिर्फ सीट नंबर 222 कहकर अपनी बात को पूरा नहीं कर सकते थे? परन्तु उन्होंने तो तेलंगाना राज्य के 2024 से 26 के लिए चुने गए सांसद अभिषेक सिंघवी की सीट की स्थिति का सचित्र वर्णन कर दिया। शायद, नोट कहां से पाए गए, उसकी सही लोकेशन बतलाने के लिए सभापति महोदय ने इतना डिटेल विवरण दिया? तब तो फिर उस विवरण में दो बातें रह गई। उनको फिर यह भी बतलाना चाहिए था कि केंद्रीय विस्टा पुनर्विकास परियोजना के अंतर्गत भारत सरकार द्वारा निर्मित रायसीना पहाड़ी से 118 रफी मार्ग स्थित संसद भवन में राज्यसभा बैठक की तीसरी रो की चौथी सीट जो अभिषेक सिंघवी के नाम से है, के नीचे नोट पाए गए हैं। सिर्फ सीट नंबर 222 कहने से काम नहीं चल सकता था? क्या यह प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है? सदन चलाने का प्राथमिक दायित्व सभापति व सत्ता दल का होता हैं। क्या सदन में हंगामा के उद्देश्य से उक्त अनावश्यक घोषणा की गई? अथवा सदन में पिछले कुछ दिनों में चल रहे ‘‘नरेटिव’’ को बदलने का यह प्रयास तो नहीं है? अन्यथा  संबंधित सदस्य से सीधे चर्चा कर वीडियो की जांच कर तदनुसार पैसा खजाने में जमा करा दिया जाता या कोई फॉल गेम (षड्यंत्र) होने पर कार्रवाई की जाती। मामला सम्मान पूर्वक सौहार्दपूर्ण तरीके से समाप्त हो जाता। सदन में उपरोक्त तरीके से खुलासा  करना क्या उचित था? लेकिन शायद सभापति को तो ‘‘टटिया की ओट शिकार खेलना’’था। 

‘‘नियमों का उल्लंघन’’नहीं।

आखिर कैश कांड का मुद्दा क्या है, किस नियम का उल्लंघन हुआ है और जांच की दिशा व दशा क्या है? यह पैसा अभिषेक मनु सिंघवी का है इस बाबत न तो कोई साक्ष्य है, न ही कोई आरोप सभापति द्वारा लगाया गया है। विपरीत इसके सिंघवी ने इनकार करते हुए स्पष्ट कहा है कि मैं सदन में रू. 500 से ज्यादा लेकर नहीं जाता हूं। ओफ, क्या गरीबी है ‘‘ओई की रोटी ओई की टटिया लगे दुआर’’। सदन के अंदर पैसे ले जाने की कोई पाबंदी नहीं है। इसलिए यदि यह मान भी लिया जाए कि उक्त नोट सिंघवी का है, तब भी नियमों का कोई उल्लंघन प्रस्तुत मामले में नहीं है। नवनिर्मित हाईटेक संसद भवन के प्रत्येक कोने के भीतर ही नहीं बल्कि संसद परिसर की प्रत्येक एक्टिविटीज जब कैमरे में कैद होती है, तब सभापति ने सिंघवी के सदन में आने से लेकर बाहर जाने तक के मात्र तीन मिनट के विडियो को चेक करवा कर उक्त पैसा वहां कैसे आ गया, इस बात का खुलासा सदन के सामने क्यों नहीं किया? सुरक्षा कर्मचारियों को मिली नोट की गड्डी को जब राज्यसभा सचिवालय में जमा कर दिया, तब सीट नंबर 222 के सदस्य को सूचित कर क्यों नहीं उनसे यह पूछा गया कि यह पैसा आपका तो नहीं है? जो एक सामान्य प्रक्रिया गुमशुदा वस्तु के संबंध में होती है। यानी कि ‘‘अपना कान देखने की बजाय उस कौए को ढ़ूढ़ना जो कान ले गया’’। अतः जांच का विषय तो इस बात का होना चाहिए कि उक्त नोटों का बंडल सीट क्रमांक 222 पर कैसे आ गया? यदि नोट के बदले और कुछ चीज होती तो? तब तो यह सुरक्षा में चूक का मामला होता, जिसके लिए जिम्मेदारी किसकी होती?  

‘‘कहीं पर तीर कहीं पे निशान’’।

नोट असली है कि नकली? सभापति का उक्त कथन अपरिपक्व व आपत्तिजनक होकर कहीं पर तीर कहीं पर निशाना ही लगता है। ‘‘हम तेजी से औपचारिक अर्थव्यवस्था में प्रवेश कर रहे हैं। क्या यह अर्थव्यवस्था की स्थिति को दर्शाता है कि लोग (अपनी नकदी) भूल सकते हैं? उन्होंने (सभापति ने) पूछा’’, बहुत ही गहरा आशय व तथाकथित धन के आरोप व विपरीत अर्थ लिए हुए हैं। क्या विकसित अर्थव्यवस्था होने के कारण 50000 रू. का मूल्य कुछ नहीं रह गया है इसलिए कोई दावेदार नहीं है, यह बताने का प्रयास तो नहीं है?

सियासी बयानों का बाजार।

इस मामले को लेकर हो रही सियासी राजनीति को सियासी बयानों से गुजर कर देखिए, आपको समझ में आ जाएगा ‘‘अजब देश की गजब कहानी’’। बयानों के बाजार में सबसे संतुलित और ‘‘नम्र’’ बयान  सदन के नेता भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का हैं। यह मुद्दा ‘‘अभूतपूर्व, असाधारण व गंभीर’’ है। उन्होंने कहा कि विपक्ष और सत्ता पक्ष को विभाजित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह सदन की ‘‘गरिमा पर हमला’’ है। वाह क्या बात है, ‘‘इक तो बुढ़िया नचनी दूजे घर भया नाती’’ परंतु प्रश्न यह है यदि उक्त पैसा अभिषेक सिंघवी का ही है जो उनकी जेब से सीट के नीचे गिर गया है, तब भी इससे सदन की गरिमा कहां व कैसे खंडित होती है? प्रश्न यदि यह काला धन है, जैसा सांसद मनोज तिवारी ने यह कहकर की कांग्रेस सांसद के आसंदी व घरों से काला धन बरामद हो रहा है,तो क्या उक्त काला धन को इनकम टैक्स विभाग के पास जमा कर दिया गया है? सिंघवी की घोषित कुल संपत्ति लगभग 360 करोड़ रुपए होकर राज्य सभा में सबसे ज्यादा आयकर देने वाले सांसद हैं, काला धन बताने वालों को शायद यह जानकारी नहीं है। यह सच है कि ‘‘इंसान अपने दुःख से इतना दुःखी नहीं है जितना दूसरे के सुख से’’।  कांग्रेस पार्टी का यह चरित्र रहा है कि वह सांसदों को घूस देकर सरकार बचाती रही है, जैसा की कुछ राजनीतिज्ञ और मीडिया पिछली हुई घटनाओं को हवाला दे रहे हैं, जो एक वास्तविकता भी है, परन्तु उन घटनाओं का इस घटना से लिंक करना कितना उचित है, जब लिंक करने वाले भूल जाते हैं कि उनके इतिहास में भी पैसे लेते हुए स्टिंग ऑपरेशन हुए हैं। किरण रिजिजू का कथन ‘‘डिजिटल वीडियो में सदन के बीच नोटो की गड्डी का क्या काम’’? वो तो हइये, ‘‘एक ने कील ठोकी दूसरे ने टोपी टांगी’’। उक्त घटना को लेकर चल रहे आरोप प्रत्यारोप क्या यह राजनीतिक अपरिपक्वता की निशानी है अथवा ‘‘निकृष्टता’’ की? यह आपको तय करना है। इस पूरी घटना को एक मुहावरे में समेटा जा सकता है। ‘‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम लट्ठ?

सोमवार, 2 दिसंबर 2024

मध्य प्रदेश विधानसभा के उपचुनावों के परिणाम l हार-जीत! परंतु "संकेत एक ही दिशा की ओर" l


विजयपुर उपचुनाव ! दल बदलू को सबक l 

छह बार से कांग्रेस से जीतते रहे  चंबल-ग्वालियर क्षेत्र के कद्दावर नेता तथा प्रदेश कांग्रेस के पूर्व कार्यकारी अध्यक्ष रामनिवास रावत की विजयपुर उपचुनाव में वन मंत्री भाजपा प्रत्याशी के रूप में हार निश्चित रूप से कई संकेतो को इंगित करती है l प्रथम पिछले कुछ समय से राजनीति में यह प्रवृति हो गई है कि राजनेता यह मानकर समझ कर ही चलते हैं कि हम जब चाहे जिस पार्टी से चुनकर, फिर इस्तीफा देकर, फिर पुनः जनता के बीच चुनाव में जाकर जीत कर विधायक बनकर सत्ता की मलाई खा सकते हैं, उनके लिए यह एक झटका है l इसी मध्य प्रदेश में वर्ष 2018 के विधानसभा के चुनाव के लगभग 15 महीनों बाद लगभग 22 कांग्रेस के विधायकों ने लगभग एकसाथ  विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर भाजपा में शामिल होकर सरकार गिरा कर तत्पश्चात फिर हुए उपचुनावों में भाजपा की टिकट पर जीतकर भाजपा की सरकार बनाई थी l उस समय भी इस्तीफा देने वाले कुछ विधायक फिर से चुनकर नहीं आ पाए थे l परंतु जनता के इस आंशिक सबक को नेताओं ने अंगीकार नहीं किया कि "अच्छी जीन से ही कोई घोड़ा अच्छा नहीं हो जाता है" l विजयपुर उपचुनाव की हार यह उक्त वृत्ति पर कुछ रोक अवश्य लगाती है l यह परिणाम कम से कम ऐसे नेताओं को सावधान तो जरूर करता है कि हम हमेशा जनता को यह मानकर नहीं चल सकते हैं (टेक इट ग्रांटेड) की जनता उन्हें हमेशा ऐसी स्थितियों में गले लगाएगी ही l हम देख रहे हैं पिछले काफी समय से किसी पार्टी से एक व्यक्ति चुनकर विधायक बनता है और सत्ता की लोभ में अपनी पार्टी से इस्तीफा देकर सत्ताधारी पार्टी में चला जाता है और वहां से उप चुनाव लडकर फिर जीत कर आ जाता है l सिद्धांत व पार्टी निष्ठा तो एक तरह से खत्म ही हो गई है l लेकिन "न ख़ुदा ही मिला न विसाले सनम" की उक्ति को चरितार्थ करते हुए इस परिणाम के द्वारा जनता ने इस बढ़ते हुए महारोग पर कुछ रोक जरूर लगाई है l याद कीजिए! कमलनाथ की पत्नी सांसद अलका नाथ द्वारा दिए गए स्टीव के कारण हुए छिंदवाड़ा लोकसभा का वह उप चुनाव जब कमलनाथ की टिकट "जैन डायरी हवाला कांड" में नाम आने पर कटने पर उन्होंने अपनी पत्नी अलका नाथ को टिकट दिलाई, जिनके चुनाव जीतने के कुछ समय बाद ही जैन हवाला कांड का मामला ठंडा होने पर उनसे इस्तीफा दिला कर खुद उप चुनाव लड़ा, जहां उन्हें पहली बार जनता ने पटकनी दी और यह सबक सिखाया कि आप क्षेत्र की जनता को अपने ऑफिस का कर्मचारी नहीं समझ सकते हैं कि जब आपके मन में आया हटा दिया और जब मनमर्जी हुई वापिस ले आए l

तोमर व शिवराज सिंह की कमजोर होती स्थिति ?

इसका दूसरा संकेत पूर्व केंद्रीय कृषि मंत्री व प्रदेश के सबसे बड़े कद्दावर नेता विधानसभा के स्पीकर नरेंद्र सिंह तोमर की राजनीतिक स्थिति पर कुछ प्रभाव पड़ सकता है l रामनिवास रावत कांग्रेस की राजनीति में ज्योतिरादित्य सिंधिया के खासम खास हुआ करते थे, बावजूद इसके वे ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ भाजपा में शामिल नहीं हुए थे l नरेंद्र सिंह तोमर ने अपने प्रभाव क्षेत्र को सिंधिया के मुकाबले बढ़ाने के लिए ही रामनिवास रावत को पार्टी में शामिल करवा कर मंत्री बनवाकर चुनाव लड़वाया था l शायद इसी कारण से सिंधिया इस चुनाव में स्टार प्रचारक होने के बावजूद प्रचार करने नहीं गए l इस चुनाव परिणाम ने नरेंद्र सिंह तोमर के इस प्रयास को धक्का लगाया l अर्थात "अंधे अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़ंत"।

भविष्य में मुख्यमंत्री को चुनौती देने वाले दावेदारों की स्थिति कमजोर हुई l 

मुख्यमंत्री मोहन यादव की दृष्टि से इस परिणाम के राजनीतिक नफा नुकसान को देखना दिलचस्प होगा l क्योंकि इन दोनों उप चुनावों की टिकटें  मुख्यमंत्री मोहन यादव ने नहीं दिलाई थी l विजयपुर की टिकट उनके एक प्रतिद्वंद्वी नरेंद्र सिंह तोमर व दूसरी टिकट दूसरे प्रतिद्वंद्वी शिवराज सिंह चौहान के कोटे से आई थी l इसलिए पार्टी के "अंदर खाने" की राजनीति में तो डा. मोहन यादव को इसका फायदा हो सकता है l परन्तु सार्वजनिक राजनीति में इन परिणामों से उनकी सरकार की कार्य क्षमता पर एक प्रश्नवाचक चिह्न जरूर लगता है?  बुधनी की "फीकी जीत" (पिछले चुनाव की तुलना में लगभग 90 हजार जीत का अंतर कम हो गया) से भी उनके जिताऊ नेतृत्व क्षमता पर उंगली जरूर उठेगी l झारखंड में भाजपा की बुरी हार से भी शिवराज सिंह की स्थिति कमजोर हुई है l

आदिवासी वर्ग का भाजपा से छिटकना l 

विजयपुर विधानसभा की एक प्रमुख बात यह भी है कि कांग्रेस के उम्मीदवार मुकेश मल्होत्रा आरक्षित आदिवासी वर्ग से आते हैं, जो पिछले चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़े थे l जबकि भाजपा के उम्मीदवार रामनिवास रावत मीना रावत समाज से आते हैं l विजयपुर आदिवासी आरक्षित विधानसभा क्षेत्र नहीं है l अतः इस सीट पर 6 बार रामनिवास रावत के रूप में कांग्रेस की जीत से यह बात स्पष्ट रूप से सिद्ध होती है कि इस क्षेत्र का आदिवासी वर्ग रावत के कांग्रेस छोड़ने के बावजूद कांग्रेस के साथ जुड़ा हुआ है, जो भाजपा नेतृत्व के लिए चिंता का सबब होना चाहिए l एक दिलचस्प बात यह भी है की भाजपा प्रत्याशी रामनिवास रावत की कुल घोषित संपत्ति 9 करोड़ 83 लाख रुपए की है, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी मुकेश मल्होत्रा की कुल संपत्ति मात्र 83 लाख रुपए है l एक बात और, एक ही समय दो बार शपथ ले कर "ढाई दिन की बादशाहत" का ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाने वाले राम निवास रावत इस चुनाव में सातवीं बार जीत का रिकॉर्ड नहीं बना पाए l यह रावत की 2018 की विधानसभा की व  2019 की लोकसभा चुनाव की हार के बाद तीसरी हार है l यदि वन मंत्री रहे विजय कुमार शाह को छोड़ दिया जाए तो वन मंत्री के रूप में हार का सिलसिला डॉ गौरीशंकर शेजवार से लेकर रावत तक बदस्तूर जारी है l

क्या कांग्रेस के लिए यह परिणाम "बूस्टर" हो पाएगा? 

विधानसभा और लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हारी कांग्रेस के लिए विजयपुर उपचुनाव की जीत और बुदनी उपचुनाव की भाजपा की जीत की मार्जिन में भारी कमी कहीं न कहीं एक "बूस्टर" का काम कर सकती है ? यदि कांग्रेस नेतृत्व इस संदेश को कार्यकर्ताओं के माध्यम से पूरे प्रदेश में पहुंचने का प्रयास करें तो? जो वर्तमान प्रदेश कांग्रेस नेतृत्व वह खस्ता संगठन हालत को देखते हुए संभव लगता नहीं है l क्योंकि इस जीत में स्थानीय कांग्रेस नेतृत्व की प्रमुख भागीदारी रही है न की प्रादेशिक नेताओं की l प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी की राजनीतिक सोच की हालत यह है कि वह विजयपुर की जीत पर तो उसे लोकतंत्र की रक्षा बताते हैं l तब फिर बुदनी की "हार" क्या कहलाएगी ? यदि उनका तर्क रूबरू वैसा ही मान लिया जाए तो? जीत और हार तो स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। "अकल और हेकड़ी एक साथ नहीं चल सकती", पटवारी जी! यह लोकतंत्र का अभिन्न भाग है l एक पक्ष जीतेगा और दूसरा पक्ष हारेगा ही l हां यदि बुधनी उपचुनाव संवैधानिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन और धांधली करके धन बाहुबली के दुरुपयोग से जीता गया है, तब जरूर लोकतंत्र पर प्रश्न लगता है l तथापि ऐसा कोई आरोप जीतू पटवारी का नहीं है और न ही वस्तु स्थिति है l

अंत में दोनों जीते हुए उम्मीदवार को हार्दिक बधाइयां l

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