सोमवार, 16 दिसंबर 2024

अजब देश की गजब कहानी! ‘‘राज्यसभा कैश कांड’’।

‘‘हंगामा है क्यूं बरपा? हंगामा?

भूमिका।

अभी तक तो मेरा मध्य प्रदेश समय के अंतरालों पर अजीबो गरीब हरकतें घटित होने से ‘‘अजब गजब प्रदेश’’ कहलाता रहा है। परंतु विगत दिवस राज्यसभा जो संसद का उच्च (अपर) स्थायी सदन होता है, में जिस तरह से ‘‘कैश कांड’’ का वर्णन माननीय सभापति महोदय ने दिया जिस पर आयी निम्न स्तरीय राजनीतिक प्रतिक्रियाओं ने मेरे प्रदेश की उक्त ‘‘संज्ञा मुकुट’’ को संसद ने मेरे देश के शीर्ष पर पहना दिया, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा। आइये राज्यसभा के इस कैश कांड के ‘‘कहे-अनकहे’’ पहलुओं को ‘‘उथली बहस’’ व लगाए आरोपों के विपरीत, समझने का  प्रयास करते हैं।

कैश कांड आखिर है क्या?

संसद के शीतकालीन सत्र के नौंवे दिन जब कांग्रेस के सांसद लोकसभा के बाहर पट्टी लगाकर नारेबाजी प्रदर्शन कर रहे थे, देश के वरिष्ठम अधिवक्ता, कांग्रेस सांसद अभिषेक मनु सिंघवी, उच्चतम न्यायालय में बहस कर रहे थे, तब राज्य सभा के अंदर सभापति जगदीप धनकड़ सदन को बतला रहे थे कि कल हाउस स्थगित होने के बाद नियमित एंटी सबोटाज जांच के दौरान सीट क्रमांक 222 जो तेलंगाना से 2024-26 के लिए सदस्य बने अभिषेक मनु सिंघवी की है, की सीट के नीचे 500 की नोटों की गड्डी मिली है। सभापति ने आगे कहा, ‘‘परंपरा के अनुसार जांच का आदेश दिया गया है. यह स्पष्ट नहीं है कि करेंसी नोट ‘‘असली थे या नकली’’ (क्योंकि ‘‘उजला उजला सभी दूध नहीं होता’’।) गड्डी में 500 रुपये के नोट हैं. यह मेरा कर्तव्य था और मैं सदन को सूचित करने के लिए बाध्य हूं। उन्होंने आगे कहा, क्या लोग इस तरह नोटों की गड्डी भूल सकते हैं? अभी तक कोई दावेदार न आने से मैं यह जानकारी सदन को दे रहा हूं। बात जितनी साधारण सी दिखती है, उतनी है नहीं, यदि आप माननीय सभापति के शब्दों व पूरे कथन और उसके बाद आई राजनीतिज्ञों की प्रतिक्रियायों को जोड़कर देखें, तब आप समझ पाएंगे आखिर माजरा है क्या? जांच किस बात की, व उसका दायरा क्या है, अध्यक्ष महोदय ने स्पष्ट नहीं किया।

सदन को न चलने देना का सभापति का दांव तो नहीं?          

सभापति के उक्त खुलासे के तुरंत बाद विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि आपने जांच पूरी हुए बिना सांसद का नाम कैसे ले लिया? इस पर सभापति ने कहा मैंने उनका नाम नहीं लिया है, सिर्फ सीट इनकी है, यह बतलाया है। क्या सभापति सिर्फ सीट नंबर 222 कहकर अपनी बात को पूरा नहीं कर सकते थे? परन्तु उन्होंने तो तेलंगाना राज्य के 2024 से 26 के लिए चुने गए सांसद अभिषेक सिंघवी की सीट की स्थिति का सचित्र वर्णन कर दिया। शायद, नोट कहां से पाए गए, उसकी सही लोकेशन बतलाने के लिए सभापति महोदय ने इतना डिटेल विवरण दिया? तब तो फिर उस विवरण में दो बातें रह गई। उनको फिर यह भी बतलाना चाहिए था कि केंद्रीय विस्टा पुनर्विकास परियोजना के अंतर्गत भारत सरकार द्वारा निर्मित रायसीना पहाड़ी से 118 रफी मार्ग स्थित संसद भवन में राज्यसभा बैठक की तीसरी रो की चौथी सीट जो अभिषेक सिंघवी के नाम से है, के नीचे नोट पाए गए हैं। सिर्फ सीट नंबर 222 कहने से काम नहीं चल सकता था? क्या यह प्रश्न उत्पन्न नहीं होता है? सदन चलाने का प्राथमिक दायित्व सभापति व सत्ता दल का होता हैं। क्या सदन में हंगामा के उद्देश्य से उक्त अनावश्यक घोषणा की गई? अथवा सदन में पिछले कुछ दिनों में चल रहे ‘‘नरेटिव’’ को बदलने का यह प्रयास तो नहीं है? अन्यथा  संबंधित सदस्य से सीधे चर्चा कर वीडियो की जांच कर तदनुसार पैसा खजाने में जमा करा दिया जाता या कोई फॉल गेम (षड्यंत्र) होने पर कार्रवाई की जाती। मामला सम्मान पूर्वक सौहार्दपूर्ण तरीके से समाप्त हो जाता। सदन में उपरोक्त तरीके से खुलासा  करना क्या उचित था? लेकिन शायद सभापति को तो ‘‘टटिया की ओट शिकार खेलना’’था। 

‘‘नियमों का उल्लंघन’’नहीं।

आखिर कैश कांड का मुद्दा क्या है, किस नियम का उल्लंघन हुआ है और जांच की दिशा व दशा क्या है? यह पैसा अभिषेक मनु सिंघवी का है इस बाबत न तो कोई साक्ष्य है, न ही कोई आरोप सभापति द्वारा लगाया गया है। विपरीत इसके सिंघवी ने इनकार करते हुए स्पष्ट कहा है कि मैं सदन में रू. 500 से ज्यादा लेकर नहीं जाता हूं। ओफ, क्या गरीबी है ‘‘ओई की रोटी ओई की टटिया लगे दुआर’’। सदन के अंदर पैसे ले जाने की कोई पाबंदी नहीं है। इसलिए यदि यह मान भी लिया जाए कि उक्त नोट सिंघवी का है, तब भी नियमों का कोई उल्लंघन प्रस्तुत मामले में नहीं है। नवनिर्मित हाईटेक संसद भवन के प्रत्येक कोने के भीतर ही नहीं बल्कि संसद परिसर की प्रत्येक एक्टिविटीज जब कैमरे में कैद होती है, तब सभापति ने सिंघवी के सदन में आने से लेकर बाहर जाने तक के मात्र तीन मिनट के विडियो को चेक करवा कर उक्त पैसा वहां कैसे आ गया, इस बात का खुलासा सदन के सामने क्यों नहीं किया? सुरक्षा कर्मचारियों को मिली नोट की गड्डी को जब राज्यसभा सचिवालय में जमा कर दिया, तब सीट नंबर 222 के सदस्य को सूचित कर क्यों नहीं उनसे यह पूछा गया कि यह पैसा आपका तो नहीं है? जो एक सामान्य प्रक्रिया गुमशुदा वस्तु के संबंध में होती है। यानी कि ‘‘अपना कान देखने की बजाय उस कौए को ढ़ूढ़ना जो कान ले गया’’। अतः जांच का विषय तो इस बात का होना चाहिए कि उक्त नोटों का बंडल सीट क्रमांक 222 पर कैसे आ गया? यदि नोट के बदले और कुछ चीज होती तो? तब तो यह सुरक्षा में चूक का मामला होता, जिसके लिए जिम्मेदारी किसकी होती?  

‘‘कहीं पर तीर कहीं पे निशान’’।

नोट असली है कि नकली? सभापति का उक्त कथन अपरिपक्व व आपत्तिजनक होकर कहीं पर तीर कहीं पर निशाना ही लगता है। ‘‘हम तेजी से औपचारिक अर्थव्यवस्था में प्रवेश कर रहे हैं। क्या यह अर्थव्यवस्था की स्थिति को दर्शाता है कि लोग (अपनी नकदी) भूल सकते हैं? उन्होंने (सभापति ने) पूछा’’, बहुत ही गहरा आशय व तथाकथित धन के आरोप व विपरीत अर्थ लिए हुए हैं। क्या विकसित अर्थव्यवस्था होने के कारण 50000 रू. का मूल्य कुछ नहीं रह गया है इसलिए कोई दावेदार नहीं है, यह बताने का प्रयास तो नहीं है?

सियासी बयानों का बाजार।

इस मामले को लेकर हो रही सियासी राजनीति को सियासी बयानों से गुजर कर देखिए, आपको समझ में आ जाएगा ‘‘अजब देश की गजब कहानी’’। बयानों के बाजार में सबसे संतुलित और ‘‘नम्र’’ बयान  सदन के नेता भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का हैं। यह मुद्दा ‘‘अभूतपूर्व, असाधारण व गंभीर’’ है। उन्होंने कहा कि विपक्ष और सत्ता पक्ष को विभाजित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह सदन की ‘‘गरिमा पर हमला’’ है। वाह क्या बात है, ‘‘इक तो बुढ़िया नचनी दूजे घर भया नाती’’ परंतु प्रश्न यह है यदि उक्त पैसा अभिषेक सिंघवी का ही है जो उनकी जेब से सीट के नीचे गिर गया है, तब भी इससे सदन की गरिमा कहां व कैसे खंडित होती है? प्रश्न यदि यह काला धन है, जैसा सांसद मनोज तिवारी ने यह कहकर की कांग्रेस सांसद के आसंदी व घरों से काला धन बरामद हो रहा है,तो क्या उक्त काला धन को इनकम टैक्स विभाग के पास जमा कर दिया गया है? सिंघवी की घोषित कुल संपत्ति लगभग 360 करोड़ रुपए होकर राज्य सभा में सबसे ज्यादा आयकर देने वाले सांसद हैं, काला धन बताने वालों को शायद यह जानकारी नहीं है। यह सच है कि ‘‘इंसान अपने दुःख से इतना दुःखी नहीं है जितना दूसरे के सुख से’’।  कांग्रेस पार्टी का यह चरित्र रहा है कि वह सांसदों को घूस देकर सरकार बचाती रही है, जैसा की कुछ राजनीतिज्ञ और मीडिया पिछली हुई घटनाओं को हवाला दे रहे हैं, जो एक वास्तविकता भी है, परन्तु उन घटनाओं का इस घटना से लिंक करना कितना उचित है, जब लिंक करने वाले भूल जाते हैं कि उनके इतिहास में भी पैसे लेते हुए स्टिंग ऑपरेशन हुए हैं। किरण रिजिजू का कथन ‘‘डिजिटल वीडियो में सदन के बीच नोटो की गड्डी का क्या काम’’? वो तो हइये, ‘‘एक ने कील ठोकी दूसरे ने टोपी टांगी’’। उक्त घटना को लेकर चल रहे आरोप प्रत्यारोप क्या यह राजनीतिक अपरिपक्वता की निशानी है अथवा ‘‘निकृष्टता’’ की? यह आपको तय करना है। इस पूरी घटना को एक मुहावरे में समेटा जा सकता है। ‘‘सूत न कपास, जुलाहों में लट्ठम लट्ठ?

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