गुरुवार, 19 दिसंबर 2024

‘‘एक देश एक चुनाव’’! ‘‘बुनियादी ढांचे में परिवर्तन’’ या ‘‘पुर्नस्थापना’’?

129 वां संविधान संशोधन विधेयक ‘‘संघीय ढांचे पर अतिक्रमण’’ कैसे?

'संविधान संशोधन विधेयक आवश्यकता!

संविधान लागू होने के 75 वें वर्ष पर संसद में दो दिन पूर्व से हो रही संविधान पर चर्चा के दौरान पूर्व राष्ट्रपति कोविंद की अध्यक्षता में एक वर्ष पूर्व (सितम्बर 2023 में) गठित कमेटी की रिपोर्ट की सिफारिशों को रूबरू कैबिनेट ने स्वीकार कर 129 वां संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में प्रस्तुत किया गया है, जिसे विस्तृत विचार हेतु ’‘जेपीसी’’ को भेजा जायेगा। यद्यपि इस संबंध में वर्ष 1983 से ही भिन्न-भिन्न समयों में चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग एवं संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं।

'एक देश-एक चुनाव’ की जरूरत क्यों?’

बेशक यह मुद्दा आज बहस के केंद्र में है। महत्वपूर्ण बात यह है कि वर्ष 1952 से 67 तक लोकसभा व विधानसभाओं के एक साथ हुए आम चुनावों (एक अपवाद को छोड़कर जब वर्ष 1960 में केरल विधानसभा के मध्यावधि चुनाव कराने से यह क्रम पहली बार टूटा) के बाद समय-समय पर विभिन्न राज्यों की विधानसभाएँ  भिन्न-भिन्न कारणों से समय पूर्व भंग कर दी गईं। बड़े पैमाने पर वर्ष 1969 में कांग्रेस पार्टी में विभाजन होने के कारण वर्ष 1971 में देश में पहली बार लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराये गए थे। महत्वपूर्ण ध्यान देने योग्य बात यहां यह है कि यह स्थिति कोई संवैधानिक  संशोधन के कारण नहीं हुई है? तथापि एक साथ चुनाव कराने में वापस आने के लिए जरूर प्रस्तावित संविधान संशोधन करना आवश्यक हो गया है। प्रश्न यह है कि पूर्व स्थिति की ’‘पुर्नस्थापना’’ के लिए किए जाने वाले प्रस्तावित संविधान संशोधन से क्या उच्चतम न्यायालय द्वारा ‘‘केशवानंद भारती’’ (वर्ष 1973) में प्रतिपादित सिद्धांत ‘‘संविधान के मूलभूत (बुनियादी) ढांचा’’ जिसे आगे भी कई अवसरों पर उच्चतम न्यायालय ने सही ठहराया है, पर आंच आयेगी? क्या यह संघीय ढांचे पर अतिक्रमण है’’? ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि जब चार बार एक साथ चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं, तो अब पुनः उक्त स्थिति को पुनर्स्थापित करने में समस्या क्या व क्यों है? इस पर समस्त पहलुओं के साथ गहनता से विचार करना आवश्यक है।

'पुरानी व्यवस्था की पुनर्स्थापना ! नई नीति नहीं!’

संविधान निर्माताओं ने जब निश्चित अवधि 5 साल के अंतराल में एक साथ लोकसभा व विधानसभा के चुनाव कराने की बात कही थी, तब उन्होंने यह कल्पना नहीं की थी कि देश में दल बदल के कारण ‘‘आयाराम-गयाराम’’ की राजनीति के गिरते स्तर, लालच, धन, बल के चलते शनै शनै एक स्थिति ऐसी बन जायेगी, जब ‘‘संवैधानिक प्रावधिक अवधि’’ का पालन करने के कारण प्रायः अधिकतर राज्यों की विधानसभाओं व केंद्र के लोकसभा चुनाव अलग-अलग होने लगेगें। अतः जब वर्ष 1967 तक चुनाव एक साथ होते रहे हैं, जब वे संघीय ढ़ाचे पर अतिक्रमण नहीं थे, तब आज कैसे? जबकि किसी भी सरकार ने संविधान संशोधन कर चुनावी अवधि की व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं किया। याद कीजिए! संविधान निर्माताओं ने प्रारंभ में ‘‘एससी एसटी’’ ‘‘आरक्षण’’ के लिए मात्र 10 वर्ष का प्रावधान किया था, और उक्त उद्देश्य की प्राप्ति न होने के कारण इसे हर आगे 10 साल के लिए बढ़ाने का प्रावधान किया गया, जिसकी दूरदर्शी कल्पना तो उन्होंने तत्समय ही कर ली थी। परन्तु संविधान निर्माताओं ने शायद राजनेताओं के गिरते नैतिकता व गलत आचरण की कल्पना नहीं की थी, जिस कारण ही एक साथ चुनाव कराने का चक्र पांच साल की अवधि का क्रम टूटा है। दुर्भाग्यवश यह व्यवस्था का अभिन्न अंग बन गई है। तब फिर उसे सुधारने के लिए वही पुरानी चार चुनावों तक (52 से 67) चली व्यवस्था को पुर्नस्थापित करने के लिए यदि संविधान में आवश्यक संशोधन किये जाते हैं, तो वह संविधान के संघीय ढांचे के साथ छेड़-छाड़ या चोट कैसे! यह समझ से परे है। आख़िर "शगुन के बाजे समय पर ही सुहाते हैं"।

'विपक्ष के विरोध के आधार।

15 विपक्षी पार्टियां का विरोध का आधार है। ‘‘यह असंवैधानिक है’’। ‘‘संविधान की आत्मा पर चोट है’’। ‘‘यह संसदीय शासन प्रणाली में निहित विधायिका के प्रति कार्यपालिका की जवाब देही के मूल सिंद्धात को बिगाड़ देगा। साथ ही यह संविधान की बुनियादी संरचना का उल्लंघन करता प्रतीत होता है’’। ‘‘विधानसभा की स्वायत्तता पर खतरा है’’। ‘‘क्षेत्रीय पार्टियां खत्म हो जायेगी’’। ‘‘शासन विपक्ष युक्त देश चाहता है’’। ‘‘आरएसएस का एजेड़ा लागू करने की कोशिश’’ व ‘‘ध्यान भटकाना’’, जैसे कथनों द्वारा तीव्र विरोध प्रकट किया है। तात्पर्य यह कि "वचने किम् दरिद्रता"। इन सबका सीधा जवाब है कि प्रारंभिक 20 वर्षों तक जब एक साथ चुनाव होते रहे थे, तब क्या देश में लोकतंत्र व संविधान के मूल सिद्धांतों का उल्लंघन हो रहा था? संघीय ढांचे को चोट अनवरत बिना किसी विरोध के पहुंच रही थी? तब देश के किसी भी शख्स ने एक साथ हो रहे चुनाव के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा। तो अब विरोध क्यों? इसका जवाब शायद किसी के पास नहीं है। यह तो वही बात हुई कि "हंसिया रे तू टेढ़ा क्यों अपने मतलब से"।

आधारहीन विरोध!

       एक बात और जो इस कदम के विरूद्ध में कही जा रही है, विधानसभा-लोकसभा में एक साथ वोट देने पर देश में साक्षरता का स्तर कम होने के कारण लोग विवेक से सही निर्णय नहीं ले पाते हैं। इसका कुछ फायदा केन्द्र में बैठी सरकार की पार्टी को होता है। विशेषकर क्षेत्रीय दलों को नुकसान होता है क्योंकि राज्यों के चुनावी मुद्दे गौण हो जाते है। इस संबंध में अभी हाल के हुए ओडिशा विधानसभा चुनाव का उल्लेख करने वाले ओडिशा के पिछले परिणाम को भूल जाते हैं। जब एक साथ चुनाव कराने में उम्मीद के विपरीत परिणाम आये थे। अभी हाल में ही हुए महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव के साथ नादेड़ लोकसभा का उपचुनाव कराया गया था, जहां भी लोकसभा व विधानसभा में एक से परिणाम न होकर विपरीत परिणाम मिले थे। वस्तुतः यह जनता के विवेक पर ही प्रश्न-चिन्ह लगाने समान है? इसलिये "वज़ा कहे जिसे आलम उसे वज़ा कहो"।

‘चुनाव’’ ही लोकतंत्र का सबसे बड़ा ‘‘उत्सव’’ है।’

एक साथ चुनाव के पक्ष में एक कथन यह भी है कि हर वर्ष किन्हीं राज्यों में चुनाव होते ही रहते हैं जिस कारण आचार संहिता के लागू रहने से सरकार नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती है। वर्ष 1951 से 60 -25 चुनाव, 61 से 70-46, 71 से 80-71, 81 से 90 -59, 91 से 2000 -59, 2001 से 2010-62, 2011 से 2020 -63, 2021 से 2024 में 30 चुनाव सम्पन्न हुए है। तथापि उक्त आकड़े सरकार के हर हमेशा चुनाव होने के दावे को पूरी तरह से सही नहीं ठहराते हैं। विधेयक के पक्ष में यह कथन भी पूरी तरह से सही नहीं है कि इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं, बल्कि देश के खजाने पर भी भारी बोझ पड़ता है। हाल ही में हुए 17वीं लोकसभा के चुनाव में एक अनुमान के अनुसार, 60 हजार करोड़ रुपए से अधिक का खर्च आया और लगभग तीन महीने तक देश चुनावी मोड में रहा। वैसे पूर्व चुनाव आयुक्त ओ.पी. रावत के अनुसार भारत का चुनाव विश्व भर में सबसे सस्ता चुनाव है। यदि पैसों का ’‘अपव्यय’’ एक साथ चुनाव कराने का मुख्य आधार है, तब फिर राजनीतिक पार्टियों द्वारा किए गए खर्चों की कानूनी सीमा क्यों नहीं बांधी जाती है? जो उम्मीदवारों द्वारा किए गए खर्चों से कई गुना ज्यादा होती है व उम्मीदवार के चुनाव खर्च में नहीं जुड़ती है। आचार संहिता लागू होने पर सिर्फ नई नीति की घोषणा नहीं की जा सकती है। वह भी जरूर, यदि जनहित में अति आवश्यक हो तो चुनाव आयोग की अनुमति से की जा सकती है। आचार संहिता में भी आवश्यक संशोधन करके सरकार के दैनिक कार्यों में लगे अनावश्यक अंकुश को कम किया जा सकता है। इसलिए इस आधार पर एक साथ चुनाव की वकालत तथ्यात्मक नहीं है। इसलिये विपक्ष भी यह जानता है कि "यह लड्डू हैं रेत के"।तथापि ‘‘चुनाव’’ का ‘ड़र’ ही जनप्रतिनिधियों को जनता-जर्नादन के साथ जीवंत सर्म्पक व उनके निकट लाता है।

'भाजपा की वैचारिक पहचान।’

        ‘‘जनसंघ’’ से लेकर भाजपा और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का एक सपना रहा है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक, ‘‘विविधता में अनेकता लिये हुए’’ भारत देश की अखंडता को "क्षिति जल पावक गगन समीरा" के समान एक सूत्र में बांधने के लिए ‘‘एक देश-एक विधान’’ ‘‘एक निशान’’, ‘‘एक मोबिलिटी कार्ड, (एनसीएमसी)’’ एक पहचान (आधार कार्ड) ‘‘एक राशन कार्ड’’, ‘‘एक कर’’, ‘‘एक शिक्षा नीति’’, एवं एक देश-एक ग्रिड’’का होना आवश्यक है। इसी कड़ी में एक देश-एक चुनाव की नीति पर मोदी सरकार लगातार काम कर रही है। इसके पटल (काउंटर) में विपक्षी नेताओं ने वन नेशन-वन इनकम, वन एजुकेशन, वन इलाज का शिगूफा छोड़ा है।

'सरकार परसेप्शन बनाने में असफल।

यद्यपि आज की राजनीति में ‘‘एक्शन की बजाय पररेप्शन’’ का महत्व ज्यादा है, जिसे बनाने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी माहिर है। उनके मुकाबले सिर्फ केजरीवाल ही ठहर पाते हैं। इसके लिए एक्शन करते हुए दिखना जरूर पड़ता है। परंतु इस मुद्दे को लेकर मोदी शायद चूक गये लगते है। क्योंकि ‘‘एक देश-एक चुनाव’’ को लेकर प्रथम अवसर मिलने पर ही एक्शन कर परसेप्शन क्यों नहीं बनाया गया? पिछले एक साल की अवधि में हुए लोकसभा और विधानसभा चुनावों को ही ले लीजिये! 7 फेसों में लोकसभा चुनाव की चुनावी प्रक्रिया की अवधि कम की जा सकती थी। उड़ीसा विधानसभा के साथ ही महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू कश्मीर, झारखंड व कुछ और राज्यों के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ कराया जा सकते थे, यदि चुनाव आयोग इनकी अवधि को 6 महीने आगे पीछे घटा-बढ़ा कर लेता, जो उसके अधिकार क्षेत्र में है। वर्ष 2022 में गुजरात के साथ हिमाचल के भी चुनाव कराये जा सकते थे, जो पहले होते भी थे। तब शायद जनता के मन यह परसेप्शन जरूर जाता कि सरकार वास्तव में इस विषय पर गंभीर है और वह बिना संवैधानिक संशोधन किये इस दिशा में जो संभव कदम उठा सकती है, उठा रही है। एक तथ्य यह भी है कि इसके लिए दोनों सदनों में आवश्यक संख्या बल से एनडीए फिलहाल कोसों दूर है जो बिल को स्वीकार करने के लिए व्हिप जारी करने के बावजूद हुए मतदान के परिणाम से सिद्ध भी होता है। यानी सरकार भी जानती है कि "हंसी हंसी में हसनगढ़ बसने वाला नहीं" इसलिये बिल प्रस्तुतीकरण पर चर्चा पूरी होने के पूर्व ही गृहमंत्री के सुझाव पर संसदीय मंत्री का बिल को जेपीसी को भेजने का प्रस्ताव कहीं न कहीं सरकार की मंशा पर शंका पैदा करता है। पंचायती राज लागू होने के बावजूद पंचायतें, नगरपालिकाओं को इस संशोधन की परिधि में न लाने से इस मुद्दे की हवा थोड़ी जरूर निकली है। कोविंद कमेटी ने अपनी हजारों पेज की रिपोर्ट में बीच में विधानसभा भंग होने पर उसका चुनाव 5 साल के लिए न किये जाकर शेष अवधि के प्रावधान के लिए किया है। शायद यह प्रस्तावित संशोधन  संविधान की मूल अवधारणा को (अवधि कम करने के कारण) चोट पहुंचा सकता है? खासकर उस स्थिति को देखते हुए कि वर्ष 1971 में इंदिरा गांधी ने संविधान संशोधन कर लोकसभा का वर्ष 1971 की अवधि कार्यकाल 5 साल से बढ़ाकर 6 साल कर दी थी, जिसे न्यायालय में अवैध घोषित नहीं किया गया था।  इस संबंध में उच्चतम न्यायालय की राय ली जा सकती है।

'उपसंहार।

वास्तव में यदि राजनीतिक दल व जनता यह चाहती है कि, संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार चुनाव 5 साल में एक बार एक साथ हो, और यह क्रम आगे भी निरंतर चलता रहे। तब फिर दल बदल को पूर्णतः प्रतिबंधित कर और बीच में सरकार किसी भी मुद्दे के गिरने पर शेष अवधि के लिए ‘‘अल्पमत सरकार’’ को कार्य करते हुये देना होगा। अथवा पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत द्वारा वर्ष 2015 में सरकार को एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव के संबंध में दिया गया यह सुझाव महत्वपूर्ण हो सकता है कि अविश्वास प्रस्ताव की जगह ‘‘रचनात्मक विश्वास प्रस्ताव’’ का प्रावधान करना होगा। वैसे यदि देश में पूर्ण रूप से न सही तो 90 प्रतिशत सभी राज्यों के चुनाव लोकसभा के साथ एक साथ हो, तब भी वह देश की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए एक नेशन एक इलेक्शन ही कहलायेगा। ठीक उसी प्रकार जैसे एक देश एक टैक्स दर की नीति के तहत जीएसटी वर्तमान में विभिन्न टैक्स दरों के साथ लागू है।

अंत में एक साथ चुनाव कराने वाले के पक्षधर विश्व के कई देश अमेरिका, कनाडा, स्लोवेनिया, अल्बानिया, पोलैंड इत्यादि में एक साथ चुनाव कराने का उदाहरण दे रहे है, तब फिर इन्हीं देशों में बैलेट पेपर से चुनाव कराये जाने का क्यों नहीं अनुसरण कर रहे है? परंतु इसका जवाब नहीं मिल पायेगा। देश की राजनीति की नियति ऐसी हो गई है, जहां सुविधा के अनुसार मुद्दों को चुनने की ’राजनीति’ प्रत्येक पक्ष कर रहा है, लेकिन कोई भी इस नीति का पालन करता नहीं दीखता कि "राज सफल तब जानिये प्रजा सुखी जब होय"।

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