शनिवार, 11 जनवरी 2025

‘‘शराब व मटन के लिए बिक गई ‘‘जनता’’! इससे तो ‘‘वैश्या’’ अच्छी है’’।

भूमिका 

महाभारत में ‘संजय’ (‘‘सञ्जय’’ संस्कृत शब्द) जो सुनाते, दिखाते थे, वही दृष्टिहीन राजा धृतराष्ट्र देखते-सुनते थे। आधुनिक लोकतंत्र के महाभारत में ‘संजय’ जो ‘‘सेवक’’ होकर भी ‘‘लोकतांत्रिक राजा’’ है, ‘जनता’ जिसके वे स्वयं को सेवक मानते है को, अपना दर्दे बयां करते-करते एक नया पाठ पढ़ा गये। क्या? आइये आगे देखते है। 

‘‘संजय (गायकवाड़) ऊवाच’’

महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे शिवसेना पार्टी के बुलढाना के विधायक संजय गायकवाड़ ने वोट न देने वालो के खिलाफ तंज कसते हुए, सारी हदे पार करते हुए यहां तक कह दिया कि ‘‘यहां के मतदाता 2, 5 हजार व शराब के लिए बिक गये, इससे तो अच्छी ‘‘वेश्या’’ है’’। कसक, दर्द महसूस करते हुए शायद उन्होंने इसलिए कहा क्योंकि ‘‘दिल का दर्द होंठों पर आ ही जाता है’’।  दरअसल वे अभी हाल में सम्पन्न हुये विधानसभा चुनाव में बुलढाना विधानसभा से बमुश्किल 841 वोट से जीत पाये थे, जिसका कारण उनकी नज़र में शायद कुछ मतदाताओं का विपक्षी उम्मीदवार के पक्ष में पैसे में बिक जाना रहा होगा। आगे उन्होंने यह कथन किया कि ’’सोचिये अगर में हार गया होता, तो क्या में सारे प्रोजेक्ट हुए होते या हो सकते थे’’? गोया कि ‘‘मुर्गे ने बांग न दी होती, तो क्या सुबह नहीं होती’’। राजनीति का स्तर इतना निम्न स्तरीय हो जायेगा जहां, ‘‘वेश्या’’ शब्द का उपयोग होने लगे? तभी तो इस कथन पर पूरे देश में हंगामा और राजनीतिक गलियारों में भूचाल मच गया। इस पर टीवी चैनलों में बहस होना स्वाभाविक ही है। प्रश्न यह है कि गायकवाड का कथन क्या गलत था? या कथन में ‘‘कुछ सत्यता’’ होते हुए ‘‘मछली खा कर बगुला ध्यान’’ करने वाले एक गलत व्यक्ति द्वारा कहने पर उस कथन की सत्यता ‘राख’ से ढ़क गई? इसके लिए पहले आपको यह समझना होगा कि आखिर ‘‘वेश्या’’ का अर्थ क्या होता है।

‘‘वेश्यावृत्ति’’ सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में प्रयोग करने वाला ‘शब्द’ नहीं है?

सामान्यतः ‘‘आर्थिक मजबूरी’’ के चलते जब महिला अपनी अस्मिता का सौदा पैसे के लिए करती है, तो यह वेश्यावृत्ति है। यद्यपि आज के आधुनिक युग में कुछ एक मामलों में बगैर आर्थिक जरूरत के भी यह होती है। इसमें कोई शक नहीं कि जाग्रत व विकासशील समाज के लिए यह एक कलंक है, और ‘‘ट्रिपल ट्रिलियन इकोनॉमी से पांच ट्रिलियन इकोनॉमी’’ की ओर बढ़ रहे देश की आर्थिक प्रगति पर प्रश्नचिन्ह है? देश में हर तरफ महिलाओं की अस्मिता व सम्मान की जोश-खरोश से बात की जा रही है। महिलाओं के समग्र विकास के लिए महिला आरक्षण दिये जाने का संकल्प किया है। ऐसी स्थिति में ‘‘वेश्यावृत्ति’’ का होना ही महिलाओं के लिए समस्त विकास व सुधारों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है? जिस प्रकार ‘‘वृद्धाश्रम’’ का होना परिवार के आर्थिक विकास व मानसिक सोच पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। शायद इस पर किसी भी राजनेता का ध्यान नहीं गया है। यदि वास्तव में 77 साल में देश का समग्र चहुंमुखी आर्थिक विकास हुआ होता? जैसा कि अभी एक रिपोर्ट आयी है, जिसमें बतलाया गया है कि 1955 के बाद से आज अमीर-गरीब के बीच सबसे ज्यादा अंतर है। अर्थात चौतरफा समग्र विकास न होकर ‘‘अमीर और अमीर (संख्या व संपत्ति दोनों में) व गरीब और गरीब हो गया’’। वैसे यूपीए व एनडीए दोनो सरकारों द्वारा यह दावा किया गया कि हमने ‘‘25 करोड़’’ से ज्यादा लोगो को गरीबी रेखा से बाहर निकाला है। सत्यता यह है कि ‘‘गरीबी’’ की आधार रेखा को बदलकर ऐसा दावा किया गया। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के प्रति मानसिकता में बदलाव होकर भावनाएं स्वस्थ हो जाती, तो समाज से वेश्यावृत्ति का दाग ही समाप्त हो जाता। इसी प्रकार परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत होकर अपने बुजुर्गों के प्रति जिम्मेदारी का अहसास व व्यवहार में सम्मान की भावना पूर्णरूप हो जाती, तो वृद्धाश्रम भी समाप्त हो जाते। 

मतदाताओं की चार श्रेणियां! ‘‘नोट के बदले वोट’’ को लेकर!

मूल व गंभीर प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में मतदाता का कुछ भाग (प्रतिशत) पैसे के लिए वोट देता है? इसे आप चार श्रेणी में रख सकते हैं। प्रथम जहां मतदाता न तो पैसे लेते है और न ही उसमें सहयोग करते हैं, बल्कि उसे नापसंद करते हैं। दूसरा कुछ चालाक प्रबुद्ध मतदाता पैसे तो ले लेते हैं, लेकिन अपना वोट गुण (मेरिट) के आधार पर देते हैं! जैसे दिल्ली में प्रवेश वर्मा से 1000 रू नगद लेने वाली कुछ महिलाओं ने ‘‘आप पार्टी’’ को वोट देने की बात की, जिसका टीवी चैनल ने वीडियो क्लिप दिखाया। तीसरा वर्ग जो पहले से ही नोट देने वाली पार्टी को वोट देते आया है, लेकिन ‘‘बहती गंगा में हाथ धोने’’ के क्रम में वह पैसे भी ले लेता है। ''आई लक्ष्मी को कौन ठुकराता है''? चौथा वर्ग ‘‘मुफत का चंदन घिस मेरे नंदन’’ श्रेणी का होता है, जो वास्तव में ‘‘नोट के बदले वोट’’ की श्रेणी में आते हैं, जो अपना जमीर ही बेच देते है। और यही सबसे खतरनाक वर्ग लोकतंत्र के लिए खतरा है। 

मुफ्त योजनाएं-वोट की खरीद-फरोख्त नहीं तो क्या?

इस प्रश्न का उत्तर आप पिछले कुछ समय पूर्व हुए मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र व झारखंड में चुनाव की मीडिया रिपोर्ट को पढ़-सुन-देखकर समझ सकते हैं। जहां लाडली बहना, मुख्यमंत्री मइयां सम्मान योजना, मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहिन योजना आदि नामों से रू. 1000 से रू. 2500 नगद दे रहे हैं या देने का आश्वासन दे रहे हैं, ताकि घोषणा के आधार पर अधिकांश टीवी रिपोर्ट अनुसार चुनाव जीते गये। ‘‘द होल थिंग इज दैट रे भैय्या, सबसे बड़ा रूपया’’ मध्य प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र में यह नोट के बदले वोट नहीं तो क्या है? इन योजनाओं का कांग्रेस द्वारा लाई गई ‘मनरेगा’ योजना से तुलना कीजिए! जो ‘‘मुफ्त’’ न होकर ‘‘कुछ सेवा के बदले अधिक मेवा’’ देने का प्रयास था, जिसे आज भी भाजपा सरकार द्वारा लागू किया जा रहा है। यद्यपि इस योजना की गुणवत्ता को अन्य आधारों पर चुनौती दी जा सकती है। महाराष्ट्र में 10-10 हजार रू. व दिल्ली में प्रवेश वर्मा द्वारा 1 हजार रू. से एक वोट खरीदे जाने के वीडियो वायरल हुए। कवि भूषण के शब्दों में ‘‘नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी’’! अतः यदि विधायक ने इस कटु सत्य को गंदे शब्द का उपयोग कर कहने का दुःसाहस किया तो ‘‘सत्य’’ तो हमेशा ‘कड़वा’ होने के कारण उसे ‘थूका’ ही जाता है। वैसे मुफ्त की योजनाएं, ‘रेवड़ियों’ के संबंध में एक याचिका उच्चतम न्यायालय में वर्ष 2022 से ही लम्बित है। 

चुनावी राजनीति की आवश्यक बुराई! धन-बल!

पैसे का राजनीति व चुनाव पर गहरा प्रभाव पडता है। ‘‘चाहे वह नजराना हो, शुक्राना हो या मेहनताना हो’’। इससे किसी भी पक्ष, पार्टी, जनता, चुनाव आयोग किसी को भी इंकार नहीं है। मूलभूत जीवनयापन की सुविधाओं को लेकर उसे मुद्दे बनाकर चुनाव लड़ने के बजाए पैसे के बल पर मतदाता खरीद लिये जाते हैं, जो चुनाव परिणाम को काफी हद तक प्रभावित करते है। चूंकि संजय गायकवाड़ की एनडीए गठबंधन की पार्टी जब खुद चुनाव में पैसे बांटकर वोट खरीद रही थी, जिसका वीडियो वायरल हुआ था, तब उन पर प्रश्नचिन्ह उठना स्वाभाविक है। क्योंकि उनके दूसरे राजनीतिक साथी, दल भी तो पैसा बांट रहे थे? उनके विरूद्ध तो गायकवाड ने बयान नहीं दिया? ‘‘पहले आरसी में अपना मुंह देखो फिर दूसरे को आइना दिखाओ’’। ठीक उसी प्रकार जैसे जब खुद चकला चलाने वाला वेश्यावृत्ति का आरोप लगाये यह अस्वभाविक नहीं होगा? शायद इसीलिए संजय गायकवाड की क्लास ली गई। यह आश्चर्य की बात है कि किसी भी एक व्यक्ति ने जनता को नहीं चेताया कि आप पैसे लेकर अपना वोट क्यों देते है? यह आपका मूल संवैधानिक अधिकार है, जो आपकी भविष्य की किस्मत को तय करता है। यदि लोकतंत्र को वास्तव में बचाना है तो, यह नेता नहीं बल्कि जनता की समझदारी व विवेक के उपयोग पर ही निर्भर है। बड़ा प्रश्न यह है कि उक्त तत्व आएंगे कहां से?

रविवार, 5 जनवरी 2025

‘‘गांधी’’ के ‘‘राम धुन’’ गाने पर माफी मांगनी पड़ी! क्यों?

वर्ष 2025 के आगाज पर हार्दिक शुभकामनाएं।

‘‘राजा राम’’ के साथ ‘‘अल्लाह’’ बोलना भी स्वीकार नहीं? 

पिछले ही लेख में मैंने यह लिखा था की भारत संघ के विभिन्न प्रदेशों में ‘‘अजब-गजब’’ बनने की होड़ सी लग रही है। जैसे दिल्ली की नौकरशाही के सरकार के विरूद्ध पेपर में विज्ञापन को लेकर। इसी क्रम में ‘‘अजब-गजब’’ मध्यप्रदेश समान बिहार भी इसका भाग बन गया है। जब भजन में ‘‘अल्लाह’’ शब्द के उच्चारण मात्र पर हुडदंग हो गया। ‘‘कश्मीर से कन्याकुमारी’’ तक ‘‘अनेकता में एकता’’ लिए ‘‘सर्वधर्म-समभाव’’, ‘‘सबका-साथ सबका-विकास’’ के मूल तत्व को मानने वाले, महात्मा गांधी को ‘‘राष्ट्रपिता’’ कहने वाले, मेरे देश के ‘‘धर्मनिरपेक्ष’’ चरित्र पर धब्बा लगाने वाली उक्त स्थिति की कल्पना क्या आप कर सकते हैं? दुर्भाग्यवश मेरे देश में ऐसा पहली बार हुआ और वह भी बहुत दबंगता पूर्ण बेशर्मी के साथ। देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की जन-शताब्दी वर्ष कार्यक्रम ‘‘मैं अटल रहूंगा’’ एवं शिक्षाविद् पंडित मदन मोहन मालवीय की ‘‘जयंती’’ पर, अटल विचार परिषद और दिनकर न्यास समिति के संयुक्त तत्वाधान में पटना के बापू सभागृह में आयोजित दो दिवसीय कार्यक्रम में प्रसिद्ध भोजपुरी लोक गायिका देवी को विशेष ‘‘अटल सम्मान’’ देने के लिए बुलाया गया था। उपमुख्यमंत्री द्वारा सम्मान दिये जाने के पश्चात उनसे एक भजन गाने के लिए कहा गया। तब उन्होंने अटल जी व गांधी जी दोनों का प्रिय भजन ‘‘गांधी का राम धुन’’ गाया। वैसे बापू के अनेक भजनों में प्रथम पांच लोकप्रिय भजनों में यह भजन शामिल नहीं था। परन्तु कहते हैं न कि ‘‘छप्पन भोग छोड़ कूकर हड्डी को धावे’’, तो जैसे ही वह अहिंसा के पुजारी गांधी की रामधुन की ‘‘ईश्वर-अल्लाह तेरे नाम’’ बोल तक पहुंची, सभा में से अनापेक्षित रूप से कुछ लोग नारेबाजी, हुड़दंग करने लगे और जय श्री राम के जय जयकार होने लगे। परिणाम स्वरूप गायिका को गाना आगे रोकना पड़ा। पहले तो उन्होंने दर्शकों को यह समझाने का ‘‘असफल’’ प्रयास किया कि ‘‘भगवान एक है और उनका उद्देश्य केवल ‘‘राम’’ को याद कर रहा था’’।

परिस्थितिवश, मजबूरी में ‘‘माफी’’ मांगी।

तत्समय की परिस्थितियों को भांपते हुए, मौके की नजाकत को देखते हुए, मंच पर बैठे वरिष्ठ भाजपा नेता के इशारों को देखते-समझते हुए, शायद ‘‘जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी दीजै’’ की उक्ति का अनुसरण करते हुए, लोक गायिका ने मंच से कहा कि अगर आप ‘‘आहत’’ हुए हैं तो, मैं उसके लिए सबको सॉरी कहती हूं। आश्चर्य की बात तो है कि उक्त भजन ‘‘बापू सभागृह’’ में गाया गया व तत्पश्चात घटित घटना पूर्व केन्द्रीय मंत्री शाहनवाज हुसैन की उपस्थिति में हुई। यह स्थिति देवी को ‘‘अचंभित’’ करने वाली थी। सवाल यह है कि अपनी ‘‘नापसंदगी’’ को सब पर ‘‘थोपना’’ कहां तक उचित है? यह तो वही बात हुई कि ‘‘शहर के चिराग गुल कर दो शाह ख़ानम की आंखें दुखती हैं’’। इसके बाद जो महत्वपूर्ण घटना घटी, वह यह कि देवी के द्वारा माफी मांगने के बाद जब वह पोडियम के पास से हटती हैं, भाजपा नेता अश्विनी चौबे ‘‘जय श्री राम’’ का नारा लगवाते हैं। उक्त कार्यक्रम में सांसद रवि शंकर प्रसाद, संजय पासवान, सीपी ठाकुर आदि मंचासीन थे।

‘‘सहिष्णु’’ देश इतना ‘‘असहिष्णु’’ कब से? 

इस देश में जहां मुस्लिम जनसंख्या लगभग 14 प्रतिशत है, वहां सिर्फ ‘‘अल्लाह’’ बोल देना, वह भी भगवान श्री राम के नाम के साथ, क्या एक गुनाह हो सकता है, जहां भगवान श्री राम के प्रभावशाली भक्त लोगों की उपस्थिति में मात्र सिर्फ 50-60 युवकों, जबकि बतौर आयोजक अर्जित शाश्वत चौबे (पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के सुपुत्र) के अनुसार मात्र 5 से 6 लोगों के हंगामा करने पर गायिका को माफी मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा? बजाए ऐसे अवांछित तत्वों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के? सवाल है कि कार्रवाई करे कौन, ‘‘वही कातिल, वही मुद्दई, वही मुंसिफ’’ उर्फ ‘‘बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन’’? शाहनवाज हुसैन ने नाराजगी व्यक्त करते हुए इसे उच्चतम स्तर की असहिष्णुता बतलाया, जो सिर्फ राजनीति करने वालों की ‘‘सोची समझी साजिश’’ हो सकती है। इसके अलावा फिल्म ‘‘हम-दोनों’’ का इसी थीम पर आधारित मुस्लिम शायर साहिल लुधियानवी द्वारा लिखित प्रसिद्ध गीत ‘‘अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम’’ हम पिछले 64 सालों से सुनते आ रहे हैं। इस गीत पर भी आज तक किसी ने आपत्ति नहीं उठायी। फिर आज इन्हीं पंक्तियों को लेकर हंगामा खड़ा करना समझ से परे है। ईश्वर सब को सद्बुद्धि दे। 

राम धुन व गांधी की राम धुन में बेहद अंतर।

महात्मा गांधी ने राम धुन भजन पहली बार 1930 में दांडी मार्च के दौरान इस्तेमाल कर लोकप्रिय भजन बनाया था। मूल राम धुन ‘‘भगवान श्री हरि के मानक अवतार पुरुषोत्तम श्री राम को समर्पित यह ‘‘अल्लाह’’ शब्द के साथ भजन श्री लक्ष्मणाचार्य द्वारा रचित श्री नमः रामायणम् का एक अंश है। गांधी जी ने इस मूल भजन की 1-2 पंक्तियों को परिवर्तित कर ‘अल्लाह’ शब्द जोड़कर स्वतंत्रता आंदोलन में गाया करते थे। इस दौरान एक और मिथक प्रसिद्ध हो गया था कि यह एक देशभक्ति गीत है, जिसका उद्देश्य भारतीय समाज की एक ‘‘धर्मनिरपेक्ष समग्र छवि’’ पेश करना है’’। कुछ आलोचक मुसलमानों को खुश करने के लिए इसे महात्मा गांधी की धर्मनिरपेक्षता का ‘‘विकृत संस्कार’’ भी मानते हैं।

‘‘राम धुन’’ नहीं! ‘‘गांधी की राम धुन’’ गाई थी।

महत्वपूर्ण बात यह है कि लोक गायिका देवी ने भजन मूल ‘‘राम धुन’’ को नहीं गाया, बल्कि वे गांधी जिनका प्राण त्यागते समय अंतिम शब्द ‘‘हे राम’’ था, द्वारा संशोधित ‘‘अल्लाह’’ शब्द जोडा गया था, को गाया था, जिस पर आपत्ति की गई थी। आपत्ति महात्मा गांधी द्वारा राम धुन बदलने/संशोधन को लेकर की गई, यह स्पष्ट नहीं है। परन्तु एक बात स्पष्ट है मोहनदास करमचंद गांधी, जिन्हें देश ही नहीं विश्व के राष्ट्रपिता (प्रथम बार सुभाष चंद्र बोस) व महात्मा रविन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था ‘‘उपाधी’’ के नाम से समस्त विचारों व मतभेद के बावजूद मानता चला आ रहा है। वह बिहार जहां के जयप्रकाश नारायण को जो संपूर्ण क्रांति के जनक, ‘‘लोकनायक’’ कहलाए, वह देश जिसने ‘‘दूसरे गांधी’’ सीमांत गांधी, खान अब्दुल गफ्फार खान (बादशाह खान), पश्तून (पाकिस्तानी) स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्हें भारत रत्न दिया गया हो। ऐसी स्थिति रहने के बावजूद ऐसे देश में ‘‘अल्लाह’’ शब्द पर आपत्ति हो जाए, यह अकल्पनीय है। यह और कुछ नहीं केवल टट्टी की ओर से शिकार खेलना है।  प्रश्न यह है कि इस देश में लगभग 18 करोड़ मुसलमान रहते है, जिनके इष्ट ‘‘अल्लाह’’ है। बिना अल्लाह की जय-जयकार किये बिना ‘‘अल्लाह हो अकबर’’ का नारा लगाए बिना, जिस प्रकार भगवान श्री राम के नारे लगाये गये है, उस परिस्थिति में सिर्फ ‘‘अल्लाह’’ शब्द से इस देश में आपत्ति हो सकती है, तो मैं यह जानना चाहता हूं हम हिन्दू इन 18 करोड़ मुसलमान के साथ किस प्रकार रहेंगे? जिनके भगवान अल्लाह है। हमारा जीवन उनके ‘‘साथ’’ व्यतीत होगा या उनके ‘‘बगैर’’ (शायद बाहर करके) यह रास्ता भी अल्लाह शब्द पर आपत्ति करने वाले बतलाये? तलवार का खेत कभी हरा नहीं होता, इसे ध्यान में रखते हुए ढाई आंखर प्रेम का मंत्र सहृदय स्वीकार कर रोज-रोज की हिन्दू-मुस्लिम की कट-कट से छुटकारा मिल, कलह समाप्त होकर हिन्दू-मुस्लिम मिलकर देश के विकास के लिए समस्त समावेश शक्ति को लगा सके, मेरी उनसे यही विनती है।

सरसंघचालक के कथनों के संदर्भ में देखिए!

माननीय सरसंघचालक के हालियां जो बयान आए हैं कि ‘‘हर मंदिर के नीचे मस्जिद ढूढ़ना बंद होना चाहिए’’ तथा ‘‘कुछ नेता मंदिर-मस्जिद का मसला उठाकर हिन्दूओें का बड़ा नेता बनना चाहते हो’’ के द्वारा शायद वे संघ की छवि धर्मनिरपेक्ष बनाने की दिशा में बढ़ाये कदम के संदर्भ में क्या यह असहिष्णुता बाधक तो नहीं है? ‘‘अल्लाह’’ शब्द का विरोध करके हिन्दू नेता बनने की लालसा तो नहीं है?

देश के ‘‘तंत्र’’ पर ‘‘चोट’’ कब तक पहुंचाते रहेंगे?


केजरीवाल की ‘धमाल’ घोषणाएं

दो महीने बाद फरवरी 2025 में दिल्ली के चुनाव होने वाले हैं। चूंकि चुनाव की तारीख की घोषणा अभी तक हुई नहीं हुई है, इसलिए अभी तक ‘‘आचार संहिता’’ भी लागू नहीं हुई है। "आप" के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल तीसरी बार सत्ता के घोड़े पर सवार होने के लिए जोश भरे उतावले ही नहीं, बल्कि पूर्वतः आश्वस्त भी हैं। यही नहीं वे इस लक्ष्य को मजबूती प्रदान देने के लिए ‘‘साम-दाम-दंड-भेद’’ नीति के साथ समस्त चुनावी लटके-झटके जो कुछ हो सकते हैं, पूरी ताकत से इस चुनाव में झोंक दे रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने पूर्व की योजना आधी बिजली फ्री, फ्री जल योजना, महिलाओं के लिए फ्री बस का आगाज करके जिस प्रकार मतदाताओं को भ्रष्ट करने का सफलतापूर्वक प्रयास किया, उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए 60 वर्ष से ऊपर की उम्र के सभी बुजुर्गो के असीमित मुफ्त स्वास्थ्य के लिए "संजीवनी योजना" व 18 वर्ष से उपर की समस्त महिलाओं के लिए "महिला सम्मान योजना" के नाम से तुरंत 1000/- नगद व 2100/- रू.‘‘सत्ता पे आने पर’’ देने का वादा किया। "सब धान बाईस पसेरी" की इस घोषणा के साथ ही रजिस्ट्रेशन भी चालू कर "केजरीवाल कवर्ड कार्ड" जारी किया जाएगा। परंतु इस "टके सेर भाजी टके सेर खाजा" वाली राजनीति के ‘हाल’ इतने ‘बेहाल’ है और राजनेताओं का दिमाग खराब होकर ‘‘दिवालिया’’ कंगाल हो चुका है कि स्वयं ही इसी तरह की मुफ्त योजनाएं देने वाले, चुनाव पूर्व घोषणा करने वाली भाजपा व कांग्रेस, केजरीवाल की इन घोषणाओं को वोटरों को लुभाने, भ्रमित, गुमराह करने का प्रयास व चुनावी जुमला बताते हुए ‘‘युवक कांग्रेस’’ तो  भारतीय न्याय संहिता की (बीएनएस) धारा 316 के तहत आपराधिक साठ-गांठ  का अपराध दर्ज करने हेतु प्राथमिकी करने की सीमा तक चली गई। देश की बदहवास राजनीति में  ‘‘मेरी’’ मुफ्त की योजना गरीब जनता की आवश्यकता की पूर्ति है और ‘‘आपकी’’ मुफ्त योजना  "रेवड़ी" है, बेशर्मी से कहने से राजनीतिक पाटियां बिल्कुल हिचकती नहीं हैं, और जनता यह बात समझने को राजी नहीं है कि कुछ भी मुफ़्त नहीं मिलता, "भेड़ जहां जायेगी, मूंड़ी जायेगी"। क्योंकि अंततोगवता तो वह टैक्स के रूप में जनता से ही वसूला जाता है।

 सातवां आश्चर्य l सरकारी विज्ञापन से सरकारी अफसर द्वारा ही सरकार की घोषणा का खंडन l 

अत्यंत आश्चर्य की बात है तो यह है कि स्वयं दिल्ली सरकार, जिसके नाम पर उक्त मुफ्त योजनाएं की घोषणा की गई है, के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय एवं स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण विभाग के  संयुक्त निदेशक व विशेष सचिव  ने बाकायदा सरकारी पैसे से समाचार पत्रों को लाखों रुपए का विज्ञापन जारी कर यह कहा कि इस तरह की कोई योजना दिल्ली सरकार में न तो अस्तित्व में है और न ही अधिसूचित की गई है। नागरिकों को आगाह किया किया जाता है कि इस तरह के झूठे वादों को न माने व कार्ड बनाने के नाम पर निजी जानकारी न दें l क्योंकि ये स्कीम पूरी तरह से फर्जी, भ्रामक और अनाधिकृत है। इस प्रकार की चेतावनी तो "मुफ़्त की रेवड़ी के लिये लार टपकाती जनता" के लिये "अंधों की दुनिया में आईना बेचने के समान" है। परंतु देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि सरकार की योजना को सरकार के संबंधित विभाग केअफसरों ने बाकायदा सिर्फ पत्र द्वारा नहीं बल्कि लाखों रू. का विज्ञापन सरकार के विरुद्ध देकर जनता को यह चेताया है कि इस तरह की योजना विभाग के पास नहीं है। इस प्रकार शासन की किसी घोषणा के विरुद्ध जनता के बीच स्वयं शासन का विभाग (डिपार्टमेंट) गया, जो उनके अधिकार क्षेत्र में बिल्कुल भी नहीं है बल्कि सेवन नियमों का उल्लंघन है। वे योजनाओं के प्रति सिर्फ अपनी असहमति फाइल पर लिखित में दर्ज कर सकते थे। यह एक ऐतिहासिक आश्चर्यजनक दुर्भाग्य पूर्ण घटना होकर पहली बार घटी है, जबकि केजरीवाल की घोषणा में कहीं यह नहीं कहा गया कि रू. 2100/- देने की स्कीम को तुरंत लागू कर दिया गया है, बल्कि स्पष्ट रूप से कहा गया कि यह योजना चुनाव बाद जीतने पर लागू की जाएगी। यह "केजरीवाल गारंटी" है, जैसा कि मुख्यमंत्री आतिशी ने कहा।

योजनाओं द्वारा आम जनो को भ्रमित करने का आरोप! ‘‘आप’’ पर!

यह आरोप आम आदमी पार्टी पर लगाया जा रहा है कि मतदाताओं को लुभाने के लिए गलत व भ्रामक स्कीम का सहारा लेकर आम लोगों की निजी जानकारी, स्कीम के तहत लेकर ओटीपी वेरिफिकेशन भी कराया जा रहा है। वास्तव में इस पूरे मामले में तीन योजनाओं  को समश्रित कर तथ्यों के विपरीत आरोप जड़ दिये गये हैं। प्रथम 12 दिसम्बर को महिलाओं को 1000/- रू. देने की घोषणा की गई, जिसके बाबत मुख्यमंत्री ने कहा कि कैबिनेट का निर्णय होकर स्कीम बाकायदा नोटिफाई कर दी है। इसके साथ ही उन्होंने यह भी घोषणा की गई है कि चुनाव बाद सत्ता में आने के बाद यह रकम बढाकर 2100/- रू. दिए जाएंगे। अतः 2100/- रू. के लिए कोई अधिसूचना या कार्ययोजना बनाने का आज तुरंत कोई भी प्रश्न उत्पन्न ही नहीं होता है। जैसा कि संबंधित विभाग ने विज्ञापन जारी कर ऐसी कोई कार्य योजना न होने या अधिसूचना जारी न होने से ‘‘भ्रामक’’ होने के कारण जनता को चेताया व कार्ड बनाने के नाम पर निजी जानकारी न देने की सलाह दी। तथापि 23 दिसंबर से दोनों योजनाओं के लिए रजिस्ट्रेशन प्रारंभ कर दिया गया है।

नौकरशाही की दबंगता।

प्रश्न यह है कि इन विभागों के  अधिकारियों के पास इतनी दबंगता, हिम्मत आई कहां से ? मतलब साफ है क्योंकि उनके वास्तविक मालिक लेफ्टिनेंट गवर्नर है, मुख्यमंत्री नहीं। इन अधिकारियों की दबंगता के दो मतलब निकलते है। 77 साल के स्वतंत्र भारत के इतिहास में नौकरशाही के एक स्वतंत्र संवैधानिक रूप से निष्पक्ष कार्य करने की उम्मीद की जाती थी, जो दुर्भाग्य वश वर्तमान में इस स्थिति में पहुंच गई है कि वे शासन के नौकर न होकर सरकार में बैठे मुख्यमंत्री, मंत्रियों के नौकर हो गये, इस कारण उनका अपना कानून सम्मत स्वतंत्र मत व अस्तित्व समाप्त हो गया। क्या इन विज्ञापनों ने नौकरशाही ने अपना स्वतंत्र अस्तित्व व जनहित में सरकार के नियमानुसार काम न करने पर अपने अधिकार क्षेत्र में अंकुश लगाने की स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार को पुनर्स्थापित किया है ? यानी कि यह वह नौकरशाही नहीं है जो कि "कुम्हड़बतिया समान तर्जनी दिखाने भर से मुरझा जाये"। यह उपलब्धि अभूतपूर्व है, यदि वास्तव में इस विज्ञापन के पीछे यही उद्देश्य परिलक्षित होता है तो? परंतु वास्तव में तो विज्ञापन में तथ्यों को गलत, तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया हैै। इसका दूसरा अर्थ जो बहुत ही महत्वपूर्ण है, वह यह निकलता है कि यही ब्यूरोक्रेशी यह मान कर चल रही है कि आगामी होने वाले आम चुनाव में आप पार्टी चुनाव जीत करके आयेगी (तभी तो रू. 2100/- मिलेंगे?) चूंकि इसका क्रियान्वयन चुनाव के बाद होना है, जिसकी कार्ययोजना फिलहाल विभाग के पास नहीं है, यह बात जनता को बताना है। इस प्रकार जनता के सामने विभाग ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी है। हालांकि इसकी ज़रूरत नहीं थी, "अंधे ससुर के सामने क्या घूंघट करना"।

‘‘अजब गजब’’ मध्य प्रदेश, देश, अन्य प्रदेश। 

मैं पहले भी लिख चुका हूं मेरा प्रदेश मध्यप्रदेश की ‘‘अजब गजब’’ की डिग्री को इसी तरह का कार्य करके (जैसा हाल का ही कैश कांड) ‘‘मेरा देश’’ महान स्वयं अजब गजब देश बनने, "कर्ज़ा लेकर जनता को घी पिलाने", और "घर फूंक तमाशा देखने" की ओर चल पड़ा है। तब फिर अन्य प्रदेश भी इस दिशा की ओर क्यों नहीं चल पड़ेंगे? शायद इसी मन स्थिति कार्य दशा का यह परिणाम है कि दिल्ली सरकार के दो विभागो का उक्त विज्ञापन। ऐसा लग रहा है, भारत संघ के राज्यों के बीच उक्त ‘‘अजब गजब की डिग्री पाने’’ के लिए होड़ सी लग रही है। चूंकि यह सफर कुछ कठिन है, इसलिए समय लग रहा है।

एक ओर चारों वेद, एक ओर केजरीवाल की कुटिल चतुराई। 

एक आरोप यह लगाया गया कि सरकारी कार्यालय के सामने कैंप लगाकर फार्म भरवाए जा रहे हैं। यह आरोप नहीं एक तथ्य है, परंतु यह कोई अपराध नहीं है। दफ्तर की बाउंड्री के बाहर यदि नागरिक गण या राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता गण कोई फार्म भरवा रहे हों, तो इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि यह कार्य सरकार की ओर से हो रहा है, भले ही राजनैतिक पार्टी का कार्यकर्ता उस पार्टी का सदस्य हो, जिसकी सरकार हो। हां "अकल अपनी ही आड़े आवे" की उक्ति को चरितार्थ करते हुए राजनीतिक रूप से जिस प्रकार राजनीतिक दृष्टि कलाकारी का उपयोग करते हुए केजरीवाल ने सरकारी कार्यालय के सामने टेबल लगाकर फॉर्म भरवा कर एक ‘‘परसेप्शन’’ व ‘‘नरेशन’’ बनाकर जिसमें वे माहिर है, "डंके की चोट पर" जनता को यह समझाने का प्रयास किया है कि यह सब सरकारी स्तर पर हो रहा है, जिससे जनता का विश्वास ज्यादा बने। इसी प्रकार विपक्ष को अधिकार है केजरीवाल की उक्त राजनीतिक चाल की काट करे, गलत परसेप्शन को उजागर करें। यद्यपि अभी-अभी (लाट साहब) उपराज्यपाल ने इस संबंध में आईं शिकायत पर जांच करने के आदेश दिए हैं।

चुनावी राज्यों में ऐसी घोषणाएं व फार्म भरे जा रहें है। 

जहां तक फार्म भरने की बात है, यदि विपक्षी पार्टी ऐसी घोषणा करती जैसा कि पूर्व में मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने किसानों की कर्ज माफी की घोषणा कर कर जनता से फार्म भरवाए थे, तब तो गलत नहीं ठहरया गया था ? फॉर्म भरने के लिए यदि कोई डाटा मांगा गया, वह ‘‘स्वेच्छा’’ से नागरिक भर कर दे रहे हैं, तो वह कानून गलत नहीं है। "मियां बीवी राजी तो क्या करेगा काजी"। इन मुद्दों को लेकर नैतिकता की बात तो किसी भी पार्टी को करना ही नहीं चाहिए। ऐसे कई उदाहरण अनेक प्रदेशों जैसे महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि में पूर्व के मिल जाएंगे, जहां चुनाव पूर्व लोभ लुभावनी मुफ्त  घोषणाएं की गई और घोषणाओं के आधार पर फार्म भी भरवा गए।

 महाराष्ट्र के ‘‘कैश कांड’’ की पुनरावृत्ति। 

एक तरफ जहां 1100/- देने की घोषणा ‘आप’ द्वारा की जा रही थी, तो इसी समय दूसरी ओर दिल्ली में भाजपा के मुख्यमंत्री के एक संभावित चेहरे, सांसद, पूर्व विधायक प्रवेश वर्मा नई दिल्ली विधानसभा क्षेत्र में जहां से अरविंद केजरीवाल चुनाव लड़ रहे है, 1100/- रू. नगद महिलाओं को व एक कार्ड देते हुए पाये गए। आप पार्टी ने प्रवर्तन निदेशालय से लेकर चुनाव आयोग सबसे तुरंत कार्रवाई की मांग की। प्रवेश वर्मा द्वारा यह कहा गया की यह उनके पिताजी साहेब सिंह वर्मा द्वारा 25 वर्ष पूर्व बनाया गया ट्रस्ट द्वारा राशि जरूरतमंदों को सहायता सीधे दी जा रही है जो कार्य पहले भी किया जाता रहा है। चुनाव आयोग द्वारा कोई कार्रवाई न किए जाने पर यह बेदम तर्क दिया गया कि अभी आचार संहिता लागू नहीं हुई है। जब लिफाफे के साथ जे.पी. नड्डा की तस्वीर निकल रही हो और कुछ महिलाओं ने कैमरे पर आकर यह कहा हो कि हमें पैसे देने के साथ भाजपा को वोट देने का भी कहा गया है, तब चुनाव आयोग के पास यह अधिकार है और उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि वह तुरंत इस घटना का संज्ञान ले। परंतु चुनाव आयोग अपनी निष्पक्षता तो पहले ही संपन्न हो चुके कई चुनावों की आग में जला चुका है, जो अब बची कहां है?

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