शनिवार, 11 जनवरी 2025

‘‘शराब व मटन के लिए बिक गई ‘‘जनता’’! इससे तो ‘‘वैश्या’’ अच्छी है’’।

भूमिका 

महाभारत में ‘संजय’ (‘‘सञ्जय’’ संस्कृत शब्द) जो सुनाते, दिखाते थे, वही दृष्टिहीन राजा धृतराष्ट्र देखते-सुनते थे। आधुनिक लोकतंत्र के महाभारत में ‘संजय’ जो ‘‘सेवक’’ होकर भी ‘‘लोकतांत्रिक राजा’’ है, ‘जनता’ जिसके वे स्वयं को सेवक मानते है को, अपना दर्दे बयां करते-करते एक नया पाठ पढ़ा गये। क्या? आइये आगे देखते है। 

‘‘संजय (गायकवाड़) ऊवाच’’

महाराष्ट्र की एकनाथ शिंदे शिवसेना पार्टी के बुलढाना के विधायक संजय गायकवाड़ ने वोट न देने वालो के खिलाफ तंज कसते हुए, सारी हदे पार करते हुए यहां तक कह दिया कि ‘‘यहां के मतदाता 2, 5 हजार व शराब के लिए बिक गये, इससे तो अच्छी ‘‘वेश्या’’ है’’। कसक, दर्द महसूस करते हुए शायद उन्होंने इसलिए कहा क्योंकि ‘‘दिल का दर्द होंठों पर आ ही जाता है’’।  दरअसल वे अभी हाल में सम्पन्न हुये विधानसभा चुनाव में बुलढाना विधानसभा से बमुश्किल 841 वोट से जीत पाये थे, जिसका कारण उनकी नज़र में शायद कुछ मतदाताओं का विपक्षी उम्मीदवार के पक्ष में पैसे में बिक जाना रहा होगा। आगे उन्होंने यह कथन किया कि ’’सोचिये अगर में हार गया होता, तो क्या में सारे प्रोजेक्ट हुए होते या हो सकते थे’’? गोया कि ‘‘मुर्गे ने बांग न दी होती, तो क्या सुबह नहीं होती’’। राजनीति का स्तर इतना निम्न स्तरीय हो जायेगा जहां, ‘‘वेश्या’’ शब्द का उपयोग होने लगे? तभी तो इस कथन पर पूरे देश में हंगामा और राजनीतिक गलियारों में भूचाल मच गया। इस पर टीवी चैनलों में बहस होना स्वाभाविक ही है। प्रश्न यह है कि गायकवाड का कथन क्या गलत था? या कथन में ‘‘कुछ सत्यता’’ होते हुए ‘‘मछली खा कर बगुला ध्यान’’ करने वाले एक गलत व्यक्ति द्वारा कहने पर उस कथन की सत्यता ‘राख’ से ढ़क गई? इसके लिए पहले आपको यह समझना होगा कि आखिर ‘‘वेश्या’’ का अर्थ क्या होता है।

‘‘वेश्यावृत्ति’’ सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में प्रयोग करने वाला ‘शब्द’ नहीं है?

सामान्यतः ‘‘आर्थिक मजबूरी’’ के चलते जब महिला अपनी अस्मिता का सौदा पैसे के लिए करती है, तो यह वेश्यावृत्ति है। यद्यपि आज के आधुनिक युग में कुछ एक मामलों में बगैर आर्थिक जरूरत के भी यह होती है। इसमें कोई शक नहीं कि जाग्रत व विकासशील समाज के लिए यह एक कलंक है, और ‘‘ट्रिपल ट्रिलियन इकोनॉमी से पांच ट्रिलियन इकोनॉमी’’ की ओर बढ़ रहे देश की आर्थिक प्रगति पर प्रश्नचिन्ह है? देश में हर तरफ महिलाओं की अस्मिता व सम्मान की जोश-खरोश से बात की जा रही है। महिलाओं के समग्र विकास के लिए महिला आरक्षण दिये जाने का संकल्प किया है। ऐसी स्थिति में ‘‘वेश्यावृत्ति’’ का होना ही महिलाओं के लिए समस्त विकास व सुधारों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है? जिस प्रकार ‘‘वृद्धाश्रम’’ का होना परिवार के आर्थिक विकास व मानसिक सोच पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। शायद इस पर किसी भी राजनेता का ध्यान नहीं गया है। यदि वास्तव में 77 साल में देश का समग्र चहुंमुखी आर्थिक विकास हुआ होता? जैसा कि अभी एक रिपोर्ट आयी है, जिसमें बतलाया गया है कि 1955 के बाद से आज अमीर-गरीब के बीच सबसे ज्यादा अंतर है। अर्थात चौतरफा समग्र विकास न होकर ‘‘अमीर और अमीर (संख्या व संपत्ति दोनों में) व गरीब और गरीब हो गया’’। वैसे यूपीए व एनडीए दोनो सरकारों द्वारा यह दावा किया गया कि हमने ‘‘25 करोड़’’ से ज्यादा लोगो को गरीबी रेखा से बाहर निकाला है। सत्यता यह है कि ‘‘गरीबी’’ की आधार रेखा को बदलकर ऐसा दावा किया गया। पुरुष प्रधान समाज में महिलाओं के प्रति मानसिकता में बदलाव होकर भावनाएं स्वस्थ हो जाती, तो समाज से वेश्यावृत्ति का दाग ही समाप्त हो जाता। इसी प्रकार परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत होकर अपने बुजुर्गों के प्रति जिम्मेदारी का अहसास व व्यवहार में सम्मान की भावना पूर्णरूप हो जाती, तो वृद्धाश्रम भी समाप्त हो जाते। 

मतदाताओं की चार श्रेणियां! ‘‘नोट के बदले वोट’’ को लेकर!

मूल व गंभीर प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में मतदाता का कुछ भाग (प्रतिशत) पैसे के लिए वोट देता है? इसे आप चार श्रेणी में रख सकते हैं। प्रथम जहां मतदाता न तो पैसे लेते है और न ही उसमें सहयोग करते हैं, बल्कि उसे नापसंद करते हैं। दूसरा कुछ चालाक प्रबुद्ध मतदाता पैसे तो ले लेते हैं, लेकिन अपना वोट गुण (मेरिट) के आधार पर देते हैं! जैसे दिल्ली में प्रवेश वर्मा से 1000 रू नगद लेने वाली कुछ महिलाओं ने ‘‘आप पार्टी’’ को वोट देने की बात की, जिसका टीवी चैनल ने वीडियो क्लिप दिखाया। तीसरा वर्ग जो पहले से ही नोट देने वाली पार्टी को वोट देते आया है, लेकिन ‘‘बहती गंगा में हाथ धोने’’ के क्रम में वह पैसे भी ले लेता है। ''आई लक्ष्मी को कौन ठुकराता है''? चौथा वर्ग ‘‘मुफत का चंदन घिस मेरे नंदन’’ श्रेणी का होता है, जो वास्तव में ‘‘नोट के बदले वोट’’ की श्रेणी में आते हैं, जो अपना जमीर ही बेच देते है। और यही सबसे खतरनाक वर्ग लोकतंत्र के लिए खतरा है। 

मुफ्त योजनाएं-वोट की खरीद-फरोख्त नहीं तो क्या?

इस प्रश्न का उत्तर आप पिछले कुछ समय पूर्व हुए मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र व झारखंड में चुनाव की मीडिया रिपोर्ट को पढ़-सुन-देखकर समझ सकते हैं। जहां लाडली बहना, मुख्यमंत्री मइयां सम्मान योजना, मुख्यमंत्री माझी लाडकी बहिन योजना आदि नामों से रू. 1000 से रू. 2500 नगद दे रहे हैं या देने का आश्वासन दे रहे हैं, ताकि घोषणा के आधार पर अधिकांश टीवी रिपोर्ट अनुसार चुनाव जीते गये। ‘‘द होल थिंग इज दैट रे भैय्या, सबसे बड़ा रूपया’’ मध्य प्रदेश, झारखंड, महाराष्ट्र में यह नोट के बदले वोट नहीं तो क्या है? इन योजनाओं का कांग्रेस द्वारा लाई गई ‘मनरेगा’ योजना से तुलना कीजिए! जो ‘‘मुफ्त’’ न होकर ‘‘कुछ सेवा के बदले अधिक मेवा’’ देने का प्रयास था, जिसे आज भी भाजपा सरकार द्वारा लागू किया जा रहा है। यद्यपि इस योजना की गुणवत्ता को अन्य आधारों पर चुनौती दी जा सकती है। महाराष्ट्र में 10-10 हजार रू. व दिल्ली में प्रवेश वर्मा द्वारा 1 हजार रू. से एक वोट खरीदे जाने के वीडियो वायरल हुए। कवि भूषण के शब्दों में ‘‘नारी बीच सारी है कि सारी बीच नारी’’! अतः यदि विधायक ने इस कटु सत्य को गंदे शब्द का उपयोग कर कहने का दुःसाहस किया तो ‘‘सत्य’’ तो हमेशा ‘कड़वा’ होने के कारण उसे ‘थूका’ ही जाता है। वैसे मुफ्त की योजनाएं, ‘रेवड़ियों’ के संबंध में एक याचिका उच्चतम न्यायालय में वर्ष 2022 से ही लम्बित है। 

चुनावी राजनीति की आवश्यक बुराई! धन-बल!

पैसे का राजनीति व चुनाव पर गहरा प्रभाव पडता है। ‘‘चाहे वह नजराना हो, शुक्राना हो या मेहनताना हो’’। इससे किसी भी पक्ष, पार्टी, जनता, चुनाव आयोग किसी को भी इंकार नहीं है। मूलभूत जीवनयापन की सुविधाओं को लेकर उसे मुद्दे बनाकर चुनाव लड़ने के बजाए पैसे के बल पर मतदाता खरीद लिये जाते हैं, जो चुनाव परिणाम को काफी हद तक प्रभावित करते है। चूंकि संजय गायकवाड़ की एनडीए गठबंधन की पार्टी जब खुद चुनाव में पैसे बांटकर वोट खरीद रही थी, जिसका वीडियो वायरल हुआ था, तब उन पर प्रश्नचिन्ह उठना स्वाभाविक है। क्योंकि उनके दूसरे राजनीतिक साथी, दल भी तो पैसा बांट रहे थे? उनके विरूद्ध तो गायकवाड ने बयान नहीं दिया? ‘‘पहले आरसी में अपना मुंह देखो फिर दूसरे को आइना दिखाओ’’। ठीक उसी प्रकार जैसे जब खुद चकला चलाने वाला वेश्यावृत्ति का आरोप लगाये यह अस्वभाविक नहीं होगा? शायद इसीलिए संजय गायकवाड की क्लास ली गई। यह आश्चर्य की बात है कि किसी भी एक व्यक्ति ने जनता को नहीं चेताया कि आप पैसे लेकर अपना वोट क्यों देते है? यह आपका मूल संवैधानिक अधिकार है, जो आपकी भविष्य की किस्मत को तय करता है। यदि लोकतंत्र को वास्तव में बचाना है तो, यह नेता नहीं बल्कि जनता की समझदारी व विवेक के उपयोग पर ही निर्भर है। बड़ा प्रश्न यह है कि उक्त तत्व आएंगे कहां से?

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